Book Title: Sazzay Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Gokaldas Mangadas Shah

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Page 245
________________ श्री ब्रह्मचरी सज्झाय. किमे न आवे बंध । स्त्रीने श्रासण बेसे जेह ॥ शील वाक जाइ तसु देह ॥६॥ चोथी वाम नयणे नयण सुं। इंघी नवि निरखे नेहसु ॥ जो निरखे तो नाजे सही। एहवी वात जिणेसर कही ॥ ७॥ सूरज साम्हो वलि र जोय । चख्खुहीण ते मानव होय ॥ जिम २ निरखे नारी अंग। तिम ५ दीपे देहि अनंग॥॥ पंचमवाम कुटी अंतरे । शीलवंत रहिवो नवि करे ॥ जिहां सुणिये स्वर कंकणतणा । हावनाव स्त्रीना घणा ॥ ए॥ अग्नि कन्हेंको मेव्हे लाख । रंग बलीने थाये राख ॥ हासो रुदन करत सांजली। शीलरंग जाइ मन चली ॥ १०॥ पूरव क्रीमा नवि संजारिये। बही एम सदा पालिये ॥ संकल्प विकल्प न करवो किमे। जेम संसार माहे नवि जमे ॥१॥ जरी अगनि उपरे ततकाल । पूले मूक्यो उठे जाल ॥ खाधो पीधो विलस्यो रम्यो । संनार्यों तो शीलज वम्यो ॥ १२॥ सातमी वाम जे हियो धरो। विगे लेवानो अल्पज करो ॥ सरस आहारें उपजे काम ।

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