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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १२१ रोमणोए । श्रीसमरचंद्रसूरिंद के ॥ राजचंऽसूरि जग जयवंतां ए । तेजें जांणि दिणंद के ॥ २३ ॥ त्रि ॥ सरवण कृषि मोटा मुनिए । पाटण साध्यु काज के ॥ ते सहगुरुने पाय नमीए, पत्नणे मुनि मेघराज के ॥ २४ ॥ त्रि० ॥ देवगुरु केर। सांनिध्यए । एम कोधी नास के ॥ नरनारि अहनिश जणोए । पूगे मननी आस के ॥ २५ ॥ त्रिम् ॥ इति श्री ज्ञाता एकोनविंशतिनमाध्ययन कंडरीक पुंडरीक सज्झायम् ॥ १९ ॥ संपूर्णम् संवत १६५५ वर्षे, चैत्र कृष्णपक्षे १० भोमव सरे, श्री अमदावादनगरे लिखितम् ॥ ग्रंथ ग्रम् ५०१ ॥ कल्याणमस्तु ॥ सूचना-' एकादशम'
वि०-मां म' न वांचवो.
शास्त्रविशारद श्रीब्रह्मर्षि कृतअढार पापस्थान परिहारनी
सज्झायो. ॥ जीवहिंसा परिहार सकायम् ॥१॥
(अंग छे चार जग दोहिला रे जीव-र देशी.) सुंदर रूप विचार चतुरपणूं । उत्तम कुल अव