________________
२१४
श्री केशिप्रदेशीप्रबंध - स्वाध्याय.
काय वसें १७ ॥ (चो
जिम समरथ थ । तिम जे मूंके बाल ॥ १६ ॥ तुम्ह वचनतो सहुँ । बिहुंना जीव समाय ॥ बल अंतरे । एम म्ह वचन प्रमाण ॥ पा5) ॥ जो केशि संजल नूपाल ! । जीव देत ए मनपिस आ । धे धनुषपणच याधली । घोघा बाण सहित सांधली ॥ १८ ॥ इणिपरे कांइ न मूके बा | कांइ न चाले प्राण विना ॥ पूरा नहु उपगरण प्रकार | जण राउ ! एह एह विचार ॥ १९ ॥ तिम एह पुण जावो प्रमाण । बिहुना अबे जीव समाए ॥ एक जाण काया आंतरो । माह्या ने ए स्यो पांतरो ॥ २० ॥ वलतो राज कहे परदेशि । जइ एम तो संजलो महेसि ! ॥ एक तरुणो बलवंत अपार । कावम बहु उपाने जार ॥ २१ ॥ गरढो ते जार न वदे कां । बिहुंनी काया पूरी थाइ ॥ तरुणो गरढो जे संचार ।
ते कीजे जीव विचार ॥ २२ ॥ कहे केशि एह संस्य किसो ? | एह कारण जोवो ने जिसो ॥ घुषि खाधी जूनी लाककी । जुना सीका जूनी पिमी ॥ २३ ॥