Book Title: Sazzay Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Gokaldas Mangadas Shah

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Page 237
________________ २२४ श्री सुप्रभाति मंगलनी सज्झायोः मिक मति निरतुं लह। ॥ जगन्नाथ जुगतो आचरे। जगतो जगति ते हरखे करे ॥७॥ नाटक करि पहतो सुर लो। गौतम पूढे पंजलि हो ॥ प्रनु परदेशि युव नव कह्यो। वीर वचने ते गणधरे ग्रह्यो ॥ ३॥ आउ तासु पढ्योपम चार । तिहां थकी ते विदेह मकार ॥ पामी चतुरंग पूरो गण। बीजे नव लहिस्ये निर्वाण ॥ १४ ॥ केशी गुरुनो ए अवदात । महि मंगल मोटो विख्यात ॥ जणतां गुणतां हुए आनंद । हरष धरी पक्षणे (श्री) पासचंद ॥ ३५ ॥ इति ॥ श्री सुप्रजाति मंगल सज्जाय. (देशी-चोपाइनी.) प्रह विहसी हुई सुविहाण । वरते सदा श्रेय कल्याण ॥ उठी समरूं श्री नवकार । चौदह पूरवनो उकार ॥१॥ अतीत अनागत ने वर्तमान । त्रण चोवीसी सुगुण निधान ॥ बहतरि जिणवरना ट्यु नाम । सुप्रनाते तसु करुं प्रणाम ॥२॥ संप्रति वि. हरमाण जिण वीस । तेह तणी मन आणि जगीस ॥

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