________________
श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
७९
काठमांहि बेवि निहाले रे ॥ ८ ॥ स० ॥ मा बे दीठा
तिहां । लेइने निज घर जाय रे ॥ कुकरु पोषकने सुंपिया | पंखवाइ मोटां थाय रे ॥ ए ॥ स० ॥ सागरदत्त इंका पासे ज । मनमांहि खाणें संका रे ॥ ए मोर घासे के नहीं । वे नित्य मन संका रे ॥ १० ॥ स० ॥ पोतानुं हुं हाथ करी । कान पासे लेई बजावे रे | एम करतां पोचुं थयुं, वे हाथ घसे पछतावे रे ॥ ११ ॥ स० ॥ इणि न्यायें दीक्षा ले । जिन धर्मे संका वहस्ये रे ॥ इह लोके ते दुख सहस्ये । नरकादिक परजव लहस्ये रे ॥ १२ ॥ स० ॥ जिणदत्त इंकुं जोड़ने । मनमांहि संका टाले रे ॥ मोर होस् सही माहरे । रुमिपरे तेहने पाले रे ॥ १३ ॥ स० ॥ कालें ते पोतज थयो । ते देखी जिणदत्त हरबेरे ॥ मोर पोषक तेमी करी । मोर सोंपी बहु संतोषे रे ॥ १४ ॥ सं० ॥ ए मोर रुमि परे राखज्यो । सीखवजो नाटारंजो रे ॥ ते पण बहु परे सीखने । नाचवा करे रंजो रे ॥ १५ ॥ मोर सीख्यो जिल्दने