Book Title: Santukumar Chariya
Author(s): H C Bhayani, Madhusudan Modi
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 140
________________ १०४ सनत्कुमारचरित दुःखदायक अभागियो शिशिर कई रीते कुशळदायक थाय-जेमां कोईपण सुखी माणस एक स्थळेथी बीजे स्थळे संचार करतो नथी ? (५५१). आ प्रमाणे विचार करतां अने संताप अनुभवतां, श्री शूर राजानो पुत्र पृथ्वीपोठ पर एक वरस भम्यो; परन्तु पोताने मोंए करेली प्रतिज्ञाना लोपथी ते विखंडित न थयो. पछी, ज्यारे क्रमशः फरी पाछो जगतना प्राणीओने तुष्ट करनार वसंतोत्सव आवी पहोंच्यो, व्यारे आम्रवृक्षोए वैभव धारण कर्यो, कोयलो फरकवा लागी. . मलयपवनने अवकाश मळ्यो, अने ज्यारे भ्रमरकुळना झंकारध्वनिथी कामदेव . जाग्रत थवा लाग्यो, त्यारे पूर्वोपार्जित सत्कृत्योने लीधे पोतानी जमणी आंख फरकी ऊठवाश्री जे आनंदित थयो छे एवा शूरसुत कुमार महेन्द्रसिंहनो, रस्ते (आगळ वधवाना) उत्साहनो गुण, शरीरमां द्विगुणित थयो. (५५२-५५३).. . त्यार पछी आगळना मार्गे जतो ते राजहंस अने सारसोनो मधुर ध्वनि सांभळवा लाग्यो; फळफूल अने पत्रनी समृद्धिथी आकर्षक बनेली रनलताओने ते जोवा लाग्यो. कमळना परागथी रंजित मलयानिलना संपर्कथी तेणे नासिकापुटमा तथा अंगोपांगमा प्रसन्नता अनुभवी. (५५४). 'अरे, पोतपोताना विपयनी प्राप्तिना व्यापारथी मारी आ चार इंद्रियो जो के अत्यारे तुष्ट थई छे, तो पण आ जीभ भूखतरसथी पीडाती एम ने एम ज रही छे !'-आ प्रमाणे विचारतो, जळ तथा फळने झंखतो, कांठा पर विविध वनो वाळा मानससरोवर पासे ते शीघ्र आवी लाग्यो. (५५५). एटले वन्य गजराजनी माफक आये सरोवर सहर्प खूदी नाखी, यथारुचि पाणी पीने, ज्यारे कठिनां वृक्षोनी टोचेथी फळफूल लईने ते आरोगतो हतो, त्यारे विद्याधरो, देवो, असुरो अने किन्नरोना संगीतध्वनिथी ऊंचो अने सारस, हंस अने मोरथी चडियातो मधुर आलाप तेणे सांभळ्यो. (५५६). एटले 'आ निर्जन महावनमां आवो गीतोद्गार क्यांथी ?' एम आदरपूर्वक मनमां विचारतो ते सहर्ष अने सत्वर रस्ते आगळ चाल्यो, त्यारे देव, असुर, विद्याधर अने मनुष्यना तरुणोनां मन हरे तेवी अने अप्सराओथी मात्र नयनपलकारे जुदी पडती एवी तरुणीओनी वच्चे रहेला; घणा ज संतुष्ट; विद्याधर तथा बंदीजनो वडे कीर्तिपाठ कराता; सर्वांगसुंदर; गोरोचन चंदनना लेपथी देहकांति वाळा; कपोलने स्पर्शतां कुंडळ, सुंदर मुकुट वगेरे अनुपम शणगार सजेला; मदनमंदिरना द्वारप्रदेश पासेना कदळीगृहनी अंदर कनक अने रत्नना आसने विराजेला; गीतगान साथेनुं सुंदर प्रेक्षणक जोता: आ रीते अल्पकाळे प्रकट थयेलां पूर्व भवना संचितथी अनेक सुखो भोगवता; अने नमन करता लोकोने राजी करता, सनत्कुमारने तेणे जोयो. (५५७-५५९). .

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