Book Title: Sankshipta Jain Dharm Prakash
Author(s): Bhaiya Bhagwandas
Publisher: Bhaiya Bhagwandas

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Page 12
________________ ( . ) धर्म का अर्थ इम ममय में सत्य नहीं, स्वार्थ है या यों कहें कि वह मजहब जो इमान को बोध काने के लिये था, आज वह मतलब गाँठने की चीज बन गया है। इस समय में धर्म एक गूढ रहस्य है, एक बड़ी पाद है, एक अच्छा पर्दा है, वहाँ बैठकर चाहे जितने पाप किए जा सकते हैं। उम बस्ती में गुनाहों को छुट है। बुरे से बुरे कर्म चाहे जिनने किए क्यों न जाय, किन्नु धर्म को प्रोट लिए रहें. धर्म मंरक्षकों, मठाधीशों, गुरुषों पादि को बराबर कुछ न कुछ भेंट दिए जाया करें, फिा क्या हे देव द्वार पर की गई हत्या तक कुछ नहीं है। इमसे यह सिद्ध हो जाता है कि धर्म इम समय में सबसे बढ़िया हाजमा हो गया है। श्रात का ममा का पूग का-पूरा धर्मवाद मदिवाद के कप में दर्शन की कंवल वस्तु रह गई है। काने के नाम पर यहाँ शुन्य ही रहना है। धर्म का वास्तविक अर्थ कनय है। किम कर्तव्य के लिये धर्म शब्द को नय आदि ममय में प्रयोग करने में आता है. उमपर हमें कुछ निम्वना प्रव अावश्यक जान पड़ता है । कर्तव्य नी कई प्रकार क हैं। सामाजिक कार्य, जिन्हें मनुष्य निन्य किया करता है, वह भी धर्म ही है। गजा या देश के प्रनि भी मनुष्य कुछ कर्तव्य करता है. वह भी उम धर्म हा है । पंट के लिये मनुष्य कुछ कर्नग करता है, वह भी उसका धम हो है आदि. पादि अनेकानेक कर्त्तव्य है, जो कि धर्म के अनगन में श्रा जाते हैं। फिर ना कौनमा कर्त्तव्य है. जिसके करने कागने के लिये समार में श्रादि से लेकर अब तक बराबर नानाप्रकार के धर्म सम्प्रदायों का जन्म हुआ है। सभी धर्मों के धुरयर विद्वानों का ऐना मन है कि प्रत्येक

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