Book Title: Sankshipta Jain Dharm Prakash
Author(s): Bhaiya Bhagwandas
Publisher: Bhaiya Bhagwandas

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Page 22
________________ मम्बोधित करने में प्राने हैं। इसप्रकार यह निर्विवाद है कि इमप्रकार जो भिन्न-भिन्न भाकारबाले पदार्थ बने रहते हैं, वे मिट्टी से पृथक नहीं है और वे ऐसे पृथक हो भी नहीं सकते। इमप्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि घड़े का श्राकार तथा मिट्टी दोनों ही घड़े के कप में मौजद है। अब यहाँ इस बात को देखना नथा ममझना है कि इमप्रकार के पदार्थ के जो दो रूप होते हैं. उनमें विनाशी म्प कौनसा है और स्थायी कौनसा ! यह तो ममी को प्रश्यक्ष दिग्बाई या ममम में आ सकता है कि घड़ा का प्राकार-प्रकार ही विनाशी है। इसका कारण यह है कि वह फुटता है, जिससे उमका म्प आदि नष्ट-भ्रष्ट तक हो जाता है और घड़े का जो दूमरा प मिट्टीवाला है वह अविनाशी ही रहता है। क्योंकि उसका विनाश कभी भी नहीं होता। उसे जिस-किसी रूप में परिवर्तन क्यों न कर लिया जावे, किन्नु वह मभी स्थानों पर जाकर अपने मिट्टीपन को उसी कर में कायम रखता है। इमप्रकार के मारे विवेचन नथा कथन का एकमात्र लक्ष यह है कि ऊपर जो घड़ावाला पदार्थ हमन लिया था, उमके दो रूप थे-कम्प विनाशी और दूमग रूप अविनाशी। विनाशा को अनिस्य तथा प्रविनाशी को निस्य को सज्ञा दर्शनवादियों ने दी है। इसी तरह प्रत्येक वस्तु को नि पता तथा अनि यता प्रमाणित करनेवाले सिद्धांत को स्यावाद कहने में आता है। __स्याद्वाद के मिद्धान्त को नित्य और अनिय तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। मन् तथा असत् प्रादि रूपों में दिखाई देनेवाली बातें भी इसी के अन्तर्गत बाजानी हैं। इस बात को अनेकांत-जयपनाका में जैन तत्वज्ञान के प्रकांड भाचार्य श्री हरिभद्रपूरि ने इसप्रकार लिखा है:

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