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( २२ ) सम्यक दृष्टि (५) देशविरति (६) पमत्त (७) अपमान (८) अपवकारण ( ६ ) अनिवृत्ति ( १०) मूत्ममंपराय ( ११ ) उपशांत मोह (१०) क्षाण मोह ( १३ ) संयोग केवली तथा (१४) प्रयोग केवली।
जैन शास्त्रकारों ने प्रात्मा की आठ दृष्टियों का वर्णन किया है. उनके नाम ये है-मित्रा, नाग, बला, दीपता, स्थिरा, कांता, प्रभा और पग। इन दृष्टियों में प्रात्मा की उन्ननि का क्रम है। प्रथम दृष्टि में जो पोष होना है, नमके प्रकाश को तृणाग्नि के उद्योत की उपमा दी गई है। उम बांध के अनुसार उम दृष्टि में सामान्यतया द्वनंन होता है। इस स्थिति में से जीव जैसेजैसे ज्ञान और वर्तन में आगे बढ़ता जाना है नैसे ही नैसे उसका विकाम होता जाना है।
झान और क्रिया की ये अाठ भूमियाँ हैं। पूर्व भूमि की अपेजा उत्तर भूमि में ज्ञान और क्रिया का प्रकर्ष होता है। इन आठ दृष्टियों में योग के प्राट अङ्ग जैम-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि क्रमश सिद्ध किए जाते हैं। इस तरह प्रामोन्ननि का व्यापार करते हुए जीव जब अन्तिम भूमि में पहुँचना है, नब उसका आवरण क्षीण होता है और उमे केवल ज्ञान मिलता है।