Book Title: Sankshipta Jain Dharm Prakash
Author(s): Bhaiya Bhagwandas
Publisher: Bhaiya Bhagwandas

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Page 64
________________ ( ५४ ) होना ही हिंसा है। यही जैनधर्म की हिंसा या अहिंसा की स्पष्ट परिभाषा या स्परेग्या है। चाहे जीव मरें या न मरें यदि मारने के परिणाम हो गये, नो गगद्वेष की सत्ता होने आत्म परिगामों में विचार आ ही गया। इसलिये हिंसा से बच नहीं मकते और यदि परिणामों में कोई विचार नहीं हुआ और मागे चलते ग किसी चीज को सावधानी से धरते-उठाते जीव बध भी हो जावे तो गगद्वेष भावों के प्रभाव से हिंसा नहीं होगी। __ जैन-धम ने निचारधाग को दूपित न होने को ही प्रारमप्रतिमा माना है। विचारों में कलुपता आने से ही स्वरूप च्युत आत्मा हो जाता है और नभी वह बहकने लगता है। अतः नानाप्रकार के अनर्थो की ओर उमका झुकाव हो जाता है। नभी हिमादि पच पाप या तीन मकार-मद्य, मांस. मधु का सेवनकर सांसारिक विषय-वासना में उलझ जाता है और यही उसके ससारबन्धन का कारण है। अतः एक मनीषी विद्वान ने कहा है कि: भावी हि पुण्याय मतः शुभः पापाय चाशुभः । तहश्यन्तं ततो रक्षेत् धरिः समय भक्तितः ॥ अर्थात् श्रान्मा के परिणाम-विचारधाग पुण्य-पाप के कारण हैं । अतः संचंता प्रागी को मदा अपने विचारधारा को पवित्र बनाए रखने की चेष्टा करना चाहिए । इस कथन का स्पष्ट प्राशय यह है कि जब नक भावहिंसाविचारों में अपने या दूसरों के मताने या मारने का अभिप्राय न होगा। हम द्रव्यहिंसा-किसी का या अपना घात नहीं कर सकते ओर विचारधारा दूषित होने का नाम ही रागद्वेष या

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