Book Title: Sankshipta Jain Dharm Prakash
Author(s): Bhaiya Bhagwandas
Publisher: Bhaiya Bhagwandas
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRESENTS ॥ श्री॥ ९९द.. हि.१४ मंक्षिप्त जैनधर्म-पकाश जैनी जाने जैन ने, जिन न जाना जैन । जे.जे.जैनी जैन जन, जाने निज निज नैन । -भैया भगवनादाम RECORMAHARA ३.९२ प्रचारक CFACAMELESESER वा० धर्मचन्द मावन मट की गली बनारम । वीर.. RECORRECRCareer Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषय १-नम्र निवेदन -बारह भावना ३-वर्तमान काल और धर्म ४-जैन-धर्म और अहिंसा ५-स्याद्वाद ६-विश्वधर्म और जैन -जैन-दर्शन ८-श्रावक तथा साधु ह-विद्वानों के मन १०-उपयोगी शिक्षा (परिशिष्ट) 1-निष्फलना :-जैन-धर्म लम्बक-पूज्य श्री १०८ प्राचार्य विद्यालंकार श्री हींगचन्द मूरिजी महागज काशी । ३-शिक्षा ..-जैन धर्म की परेखा काशःन्दूि विश्वविद्यालय के जैनधर्म के प्रोफेसर 4 पन्नालाल जी शास्त्री काव्यनीथं Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्र निवेदन ममय परिवर्तनशील है। अतः कोई भी पदार्थ संसार में अपनी एक-सी स्थिति बनाए नहीं रह सकता। भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रचलित, भगवान पार्श्वनाथ के द्वारा प्रवदित और भगवान महावीर द्वारा प्रचारित हमार जैनधर्म की भी ऐसी ही दशा है। आदि तीर्थक्करों की बातों को तो जाने दीजिए। केवल अलिम नीर्थकर भगवान महावीर को ही लीजिए । भगवान महावीर ने मंसार को समता का पाठ पढ़ाया. जीवमात्र के माथ मंत्री करना सिखाया, ज्ञान गुण की आत्मा का निज म्प बनाया एवं गगद्वंप को मंसार-बन्धन का कारण भी बनाया था। इसलिये भगवान की व्याम्यान-मभा में परम्पर विरोधी जीव मामुहिक शान्ति का अनुभव कर श्रापमा वा विरोध आदि को भूल गए थे और यही बाम कारण है कि भगवान की दिव्य पताका की शरण लेकर अात्मानुभव तक करते थे। उम ममय का जैन समाज भारतवर्ष में अपना एक खाम व्यक्तित्व रखता था। दया, हिमा, वान्मल्य आदि गुणों ने मंमार में ऐसी धाक जमा रखी थी कि भारत के व्यापार में, व्यबहार में, और परोपकार प्रवृन आदि सभी में जैनी मनसे प्रमुग्य माने जाते थे । इसका मुख्य कारण हमाग उम ममय में मामूहिक मंगठन था और भगवान महावीर के मान का पूर्ण श्राशय हम अपने हृदयों में अपनाए हुए थे । यही मुख्य कारण है कि हमारी सहानुभूति जीवमात्र से है। किन्तु दुर्भाग्य में आज समय ने Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ख ) ऐमा पल्टा न्याया है कि जो हमारे भाई थे वे भी हमारे न रहे। आज के दो हजार वर्ष पूर्व तक कलिंगाधिपति महागज खारवेल के जमाने में हमारी ममाज की करोड़ों की जन-मग्न्या थी। आज पुरातत्व विभाग हमारी पुगतन मामग्री देखकर हमारी प्राचीनना और मामूहिक शक्तियों का र्गत गाते हुए भी नहीं अघाते कार अाज हम भगवान महावीर की उमी विश्वहिनैपिणी पताका का आश्रय लिए हुए भी अपनी श्रापमा मलीनता और विद्वप भाव से मंमार का प्रांग्बों में खटक रहे हैं। क्या यही भगवान की समस्या धी! जो अाज हमका नीर्थी के झगड़ों में, मूर्तियों कं पूजा में. और ताधिक भाषणों में. पद-पद पर नज़र श्रा रही है ? क्या यही हमाग विश्व बन्धुत्व का नमूना है ? जो अाज हम पादह लाग्य की जन मंग्या में रहकर भी अपना कोई स्थान भाग्न में नहीं रखते। हममें हर तरह से पिछड़ी हुई अन्य समाजें नथा जानियाँ अपनी महट गना और सगठन का म्वाद लेकर अपना हर जगह प्रतिनिधित्व देखना चाहती हैं क्या भगवान न या हमको मिग्याया था ? क्या हमाग यही वत्सल्य है ? जो हमको माक्ष की प्रथम मी नकल जावेगा? जंनबन्धुनी ! माची' और खुब माघी' जो जैन धर्म विश्व धर्म कहलाता था, जिम धर्म की ध्वजा प्राणीमात्र को आश्रय देकर शान्ति और । गटन का पाठ पढ़ाती थी. आज जमी पनाश। श्राश्रय लिए हुए भी हमलोग दिगम्बर जैन, श्वेताम्बर जैन, स्थानकवामी जैन. नंगपंथी जैन आदि नामों से अपने फिरके बनाकर अपनी शनि को व्यर्थ बरबाद कर आज भी व्यापारिक समाज में हमाग नाम और हमारी . धाक है। हमार्ग मैकड़ों मिलें, कल-कारखाने और श्रादान Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ग ) प्रदान की बड़ी-बड़ी कोठियाँ भी हैं। पर बनलाइये तो भापके कितने कॉलेज चल रहे हैं. जिनमें भगवान ऋषिभदेव, पार्वनाथ तथा महावीर की दिव्यवाणियो आदि का प्रचार हो रहा है ? आज कितने महाविद्यालय हैं. जो प्रारमा के अनुभव करानेवाले मात तत्त्वों का एक परिभाषा में अध्ययन करा रहे हों। कौनसी ऐमी मोमाइटी है, जो हमाग मामूहिक प्रतिनिधित्व प्राम्तीय असेम्बली या न्द्रो धागमभा में का रही हो ? क्या हमने विश्व के पुननिर्माण में हाथ नहीं बटाया या भारत में उठनेवाले आन्दोलनों में अपनी पूर्ण शक्ति के अनुमार भाग नहीं लिया है ? फिर घनलाइए कि जैन-ममाज का कोनमा प्रतिनिधि हमारे स्वार्थी को रक्षा में गाया है ? एमका मूल कारण प्रापमा मनमुटाव नया अपने जैनधर्म के महान मिढांतों के प्रति हमागे अज्ञानता ही है । जिम धर्म के नाम पर हमाग आपस मे मनमुटाव है. उमी धर्म की परम्बा नया विशेषता आदि को श्राज हम इम ध्यान में अापके करकमलों में मर्पिन कर रहे हैं कि आप इसे पढ़ें, मनन के श्री फिर अनुभव को कि हम क्या श्राज वाम्नर में जनता के प्रतीक है ? यदि हमारे वन्धश्रा ने भगवान की दिव्यवाणी का कुछ भी मार ममझा और परम्पर के मङ्गटन की श्रावस्यकना का उन्होंने कुछ भी अनुभव किया, तो हम ममभंग कि हमाग श्रम कुछ सफल हो गया-जैनधर्म के मुख्य-मुम्य 'वषयों पर विचार करने के साथमाथ इम पुस्तक में जैनधर्म का रग्बाचित्र श्वेताम्बर ममाज के टीम विद्वान विद्यालङ्कार प्राचाय पूज्य श्रीहीगचन्द मूरिजी महाराज काशी और दिगम्बर जैन-ममाज के सुप्रसिद्धविद्वान नथा प्रोफेसर जैन-धर्म, 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय धर्मालङ्कार पं० पन्नालाल Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी शाना, काव्यनं'थ के विचारो को मम्मिलित किया गया है इन दोनों ही विद्वानों की धार्मिक परे ग्या में किसी को किर्म' प्रकार की विभिन्नता प्रनन नहीं हो रही है । हमका आशा है' नहीं पृग भगमा है कि पाटक इसे पढ़कर लाभ उठाने का कष्ट काँगे और इस प्रगतिशीन जमाने में अपने मङ्गठन को अध्यावश्यक समझकर उसकी और अपना पूरा ध्यान देने की कृपा भी करेंगे। यदि समाज ने हमारी इम छुद्र संवा को अपनाय' ना हम भविग में पन' टमी न.7 का माहित्य लेकर आपक मेवा में उपस्थित होने का माहम बराबर करते रहेंगे। भवीय एक जैन नागरिक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह भावना ( भूधादाम ) गजा गगगा पति, हाथिन के अमबार । मग्ना मबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ।। दलवा देई देखना, मान-पिना परिवार । मरनी बिग्यिा जीव को. कोई न राग्यनहार ।। । ) दाम विना निधन दुग्य'. नगणावा नवान । कर न सग्य ममार म. मब जरा देर यो छान ।। पाप अकली अवन, मरे अंकली होय । य कबह टम जीव का, माथी मगा न कोय ।। जहा देह अपनी नहीं. नहा न अपना काय । घर सम्पति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ।। (६) दिपै चाम चादर मदी. हाड़ पी जग देह । भीनर या मम जगत में अवर नहीं घिन गेह ।। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( च ) (७) मोह नींद के जोर. जगवामी घूमै मदा। कर्म चार चटुं ओर. मरबस लूटै सुध नहीं ।। (८) मतगुरु देय जगाय, मोह नोंद जब उपक्षमै । नय कछु बनहिं उपाय. कर्म चीर आवत रुकै।। (१) जान दीप नप तेल घर. घर शोधै भ्रम छोर । गाविध बिन निकम नह', पैट पुरव चोर ।। (१०) पच महावन मचरण, ममिनि पंच परकार । प्रयल पच इन्द्रो विजय, धार निजंग मार ।। चौदह गज उनंग नभ, लोक पुरुष मठान । न: जव अनादि ने. भरमन है बिन ज्ञान ।। ( ) धन का कञ्चन राज मुम्ब. मह सुलभ कर जान दुलभ है संमार में, एक जथाग्थ ज्ञान । आच मुरतरु मुग्य, चितन चिता रैन । बिन जाचे बिन पिनये, धर्म सकल सुन्य दैन ।। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान काल और धर्म क्युमहाबो धम्म-जनदर्शन अाज मंमार में धर्म की जो छीछालेदर हो रहा है, वह किमी से भी छिग नहीं है। इस समय में मंमागे मनुष्यों के पृथकरण करने की ही काम यदि धर्म को माने. ना भी अनुचित नहीं होगा हिन्दू में बगाव शैव, मुसलमानों में शीया सुन्नी, जैन में दिगंबर-वतांबा. बौद्धों में हीनयान-महायान. इमाइयों में कैथोलिक-प्रॉटेस्टंट आदि विभिन्न शाग्वा-प्रशान्यानी आदि की बातों को न्याग भाई और उनके मोटे-माटेम्पो तथा भिद्धांतों की दृष्टि में उन्हें देखकर उनपर विचार करें, तो भी हम विश्राम के माथ कह सकते हैं कि मसार के मभी धमाके अनुयायी किमी भी ढङ्ग से अपने अपने धर्म के सिद्धांतों का अनुमरण नहीं करते यही नहीं. उनकी दृष्टियों में ईश्वर, प्रभु, जिन, या भगवान कोई भी नहीं रह गए हैं। उनकी दृष्टिया स्वार्थी दिग्याई देन लग गई है। जिम ममय में संसार में इमप्रकार का वायुमण्डल का प्रवाह चल रहा हो, उम ममय में हम जैन धर्मा वनयी समाज के लिये भी क्या पूर्व निर्मिन शान्य प्रशाम्बाश्री पर हो चिपटा रहना उचित है ? इसी को यहां पर प्रकट करने के लिये कुछ लिया जा रहा है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( . ) धर्म का अर्थ इम ममय में सत्य नहीं, स्वार्थ है या यों कहें कि वह मजहब जो इमान को बोध काने के लिये था, आज वह मतलब गाँठने की चीज बन गया है। इस समय में धर्म एक गूढ रहस्य है, एक बड़ी पाद है, एक अच्छा पर्दा है, वहाँ बैठकर चाहे जितने पाप किए जा सकते हैं। उम बस्ती में गुनाहों को छुट है। बुरे से बुरे कर्म चाहे जिनने किए क्यों न जाय, किन्नु धर्म को प्रोट लिए रहें. धर्म मंरक्षकों, मठाधीशों, गुरुषों पादि को बराबर कुछ न कुछ भेंट दिए जाया करें, फिा क्या हे देव द्वार पर की गई हत्या तक कुछ नहीं है। इमसे यह सिद्ध हो जाता है कि धर्म इम समय में सबसे बढ़िया हाजमा हो गया है। श्रात का ममा का पूग का-पूरा धर्मवाद मदिवाद के कप में दर्शन की कंवल वस्तु रह गई है। काने के नाम पर यहाँ शुन्य ही रहना है। धर्म का वास्तविक अर्थ कनय है। किम कर्तव्य के लिये धर्म शब्द को नय आदि ममय में प्रयोग करने में आता है. उमपर हमें कुछ निम्वना प्रव अावश्यक जान पड़ता है । कर्तव्य नी कई प्रकार क हैं। सामाजिक कार्य, जिन्हें मनुष्य निन्य किया करता है, वह भी धर्म ही है। गजा या देश के प्रनि भी मनुष्य कुछ कर्तव्य करता है. वह भी उम धर्म हा है । पंट के लिये मनुष्य कुछ कर्नग करता है, वह भी उसका धम हो है आदि. पादि अनेकानेक कर्त्तव्य है, जो कि धर्म के अनगन में श्रा जाते हैं। फिर ना कौनमा कर्त्तव्य है. जिसके करने कागने के लिये समार में श्रादि से लेकर अब तक बराबर नानाप्रकार के धर्म सम्प्रदायों का जन्म हुआ है। सभी धर्मों के धुरयर विद्वानों का ऐना मन है कि प्रत्येक Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य मुम्ब-प्राति के लिये, प्रात्र मुग्य की वृद्धि के लिये, दुःख को टालने या कम करने के लिये सदैव कर्म किया करता है। पर जिम मार्ग से वह कम करना है, या कर्म जिन-जिन माग मे पृग किया जाता है. वही सम्प्रदायों की दृष्टि से धर्म हैं। धर्म विज्ञान की दृष्टि से भी धर्म को पाख्या करना भी इष्ट जान पड़ता है। ऐतिहामिक काल में कोई भी व्यक्ति धम' बिहीन था, ऐमा प्रनीत नहीं होता। इममे यह जमर प्रमाणित हो जाता है कि धर्म मभी ममय में अावश्यक नया मुख्य प्रज के रूप में मनुष्यमात्र में म्बाकार करने में आया है। किन्तु अपने-अपने धर्म के लिये सर्वात ममझनेवाले लोग मभी युगों में और अब भी मौजद हैं किन्तु वही धर्म मवश्रेष्ट या मर्वोच गिना जाता है, जो कमीटी पर जब कमा जाय श्री श्रेष्ठ निकले। इस कार्य के लिये हमने मंमार नथा भारत के सुपमिद्ध विद्वानों के मतों को पुग्नक के अन्त में मंग्रहिन किए हैं, जिममे पाठक म्वयं ही ममझ लेंगे कि धर्म की दृष्टि में जैनधर्म किम श्रेणी का है। जयति रागादि दोपान इति निनः अर्थात् गग-ढेष का विजेता जिन कहलाना है और उमी को माननेवाला नब जैन हुआ। इसका तात्पर्य यह निकला कि जिस धर्म के मानने में गगद्वप पर विजय पान की जा मक वही जैन धर्म है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म और अहिंसा भगवान ऋषभदेव, भगवान पार्श्वनाथ तथा भगवान महापौर आदि हमारे पूज्य तीर्थङ्करों के उस महान सिद्धांत को हम अपने पाठकों के सम्मुग्य उपस्थित करना चाहते हैं, जिसे हम जैन-धर्म का प्राण कह सकते हैं। वह है अहिंसा । जैन-धर्म के सभी प्राचार-विचारों की नींव इसी अहिसा-तत्व पर ही निहित है। यों तो भारत के ब्राह्मण, बौद्ध आदि जितने भी धर्म हैं, सभी ने हिसा को सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा है। किन्तु इम तत्व के बारे में जितना विस्तृत, जितना मूक्ष्म और जितना गहन विवे. चन जैन धर्म में करने में आया है, उतना गहन विवेचन आदि भारतवर्ष के अन्य धर्मों के सिद्धान्तों में देखने या पढ़ने और अनुभव करने में नहीं पाता । जैन धर्म के प्रवर्तकों ने अहिंसातत्व को उमकी चरमावस्था तक पहुंचा दिया है । उन लोगों ने अहिमा-तन्व का विवेचन ही कंवल नहीं किया है, प्रत्युत उसे प्राचरण में लाकर व्यावहारिक रूप तक दे देने की कृपा की है। अन्य सभी धर्मों में वह केवल कायिक रूप बनकर ही समाप्त हो जाता है। किन्तु जैन धर्म में 'अहिसा-तत्व' उससे बहुन आगे वाचिक और मानसिक रूप होकर आत्मिक रूप तक चला जाना है। अन्य मभी धर्मों में अहिंसा की मर्यादा मनुष्य जाति तक ही समाप्त हा जाती हैं अथवा यदि आगे बढ़ी, तो पशु-पक्षियों के जगत में पहुंचकर समाप्त हो जाता है। किन्तु जैन धर्म की महिमा की कुछ भी मर्यादा नहीं है । हमारे इम धर्म की अहिंसा की मर्यादा में चराचर जीवों का समावेश हो Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाने पर भी वह अपरमिन हो रह जाती है। जैनधर्म को अहिंसा की मोटा को यदि विश्व की तरह अमर्यादित तथा प्राकारा को तरह अनन्त भी कहें. तो अनुचित न होगा। जैनधर्म के इस महान तत्व के यथाथ रहस्य को ममझने ममझाने का प्रयाम जैन-धर्मावलम्बियों में से घिरनों ही ने किया है । संसार के बडे-बड़े कितने ही धुगंधा विद्वानों को राष्टि में हमारा यह अहिमा तत्व अव्यवहार्य, अनावरणीय, प्रास्मघातकी तथा कायग्नापूर्ण मममकर गणनाशक तक कहने में श्रा रहा है । ममार के सभी लोगों के दिमागों में इस बात ने घर कर लिया है कि इसी अहिसा नब ने ही भारत को कायर तथा निर्वीर्य तक बना दिया है। इसका मुख्य कारण यह है कि माधुनिक जैन-ममाज मे अहिमा-नन्व का जिम रूप में देखा तथा माना जाता है, उससे वास्तव में वहा प्रतिफन होना अनिवार्य भो है । जैनधम के अहिंमा-नव ने प्राधनिक समय के जैन-समाज को अवगही कायरता का रूप दिया है । जैनधर्म के वर्तमान अहिसा के रूप का देखकर विद्वान लोग जैन-बम को यदि कायरता प्रध न धर्म कहते है, ना उसके लिये जैन ममाज को दुग्यो होने का कोई भी कारण नहीं है। जैन धर्म के अहिमा-तत्व का वास्तविक रूप इस वर्तमान रूप से एकदम ही विभिन्न है। उसका वर्तमान रूप तो एकदम ही विकृन या बिगड़ा हुअा उमका रूप है। जैन-समाज इस ममय में भारत की ममृद्धिशाली स्थिति में रहकर भी जैन-धम के मिद्धान्त का दृष्टि में पतनोन्मुम्बी स्थिति को प्राप्त हो चुका है । बस के मारे मिद्धान्न माध या यति-समाज नक ही सीमित रह गए हैं। उनमें भी हाथी के दांतों की तरह खाने तथा दिग्याने की दृष्टि से विभिन्ननाबाले देखने में बात है। ममाज में जब Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी देवो संपद् का हास नथा आसुरी संपद् का आधिक्य होने लगता है, तब प्रायः मभी उत्कृष्ट तत्वों का इसी प्रकार विकृत रूप हो जाया करता है। ऐसी स्थिति में जैन समाज फिर किस प्रकार उससे अमृता रह सकता है। जिस धर्म के अनुयायी इतने पराक्रमी, शूर वीर हो गए हैं और जिन्होंने देश को नथा गज्य को इतना समृद्ध आदि बनाया था, फिर. उमी धर्म के प्रचार से देश या पजा कायर तथा पतनोन्मुम्बी किसी भी प्रकार नहीं हो सकती, जो इसको ऐसा कहते हैं, वे हमारे धर्म के इम नव की पूरी जानकारी नहीं गम्यते । अहिमा का अर्थ समझने के लिये हिंसा शब्द का अर्थ मममना आवश्यक है । 'हिमा शब्द हननार्थक हिंसी' धातु पर से बना है। इससे किसी पाणी को मारने या सताने का भाव प्रकट होता है। भारतीय पुगतन ऋषि-मुनियों के मतानुमार 'हिमा शब्द का नापयं 'पाण वियोग-पयोजन व्यापार अर्थात् 'पाणी दुख साधन व्यापागे हिमा है। इसी बात को अपनी आम बोलचाल की भाषा में इसपकार कहा जा सकता है कि पाणी को पारण सं हिन करने के लिये अथवा पाणी को किमी प्रकार का कष्ट देने के लिये जो परत्न या कार्य किया जाता है उसे हिंसा कहते हैं. इसके विपरीत किसी भी प णी या जीव को दुग्व अथवा कट न पहुँचाने को अहिंमा कहते हैं । सब प्रकार से. मभी ममयो में. सभी प्राणियों के साथ मैत्रीपूर्णक ज्यवहार करने को अहिंमा कहते हैं। मात्मवत् सर्वभूतेषु मुखः दुखे पिया प्रिये । चिन्तयमात्मनोऽनिष्ट हिंसा मन्यस्य नाचरेत् ।। -जैनाचार्य श्री हेमचन्द्राचार्य Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथात जिसपकार मनुष्यमात्र में प्रत्येक को सुख पिय और दुःम्ब अपिय लगता है. नमी प्रकार ही वह अन्य पाणो को भी मालूम होता है। इस कारण हम में से प्रत्येक का कर्तव्य है कि अपनी प्रान्मा की तरह ही दमरों की प्रामाको ममझकर उनके पनि अनिष्ट करनवाल काय न करना चाहिए । इसी बात को ध्यान में रम्बका भगवान महावीर ने एक लोक इम प्रकार से लिखने की कृपा का है:मध्ये पागा पिया उया, महसाया, दुह पडिकूना अप्पिय वहा । पिय जोरिणों, जीवि उकामा, (तम्हा) पाति वाएज किचरणं ।। ___ अर्थात मभी पागा का श्राय पिय है । मभी मुग्य के अभिलापी हैं । दुग्ब मबकं पतिकूल है. बर मयका अपिय है। सभी जीने को इच्छा ग्यते है । इन कारण किमी को मारना, अथवा कष्ट पहुँचाना हा न चाहिए। पक्ष यहाँ पर अब यह उठता है कि इसप्रकार की अहिमा का पालन मनुष्य से हो ही नहीं मकना । कारण ऐमा कोई भी स्थान नहीं है, जहा पर जीव न हो । जल में, म्यल में. पवन का चोटी पर, अग्नि नथा वायु आदि मभी जगह ममार में जीव भरे हुए है । इम कारगण मनुष्य का प्रत्येक व्यवहार में-वानापीना, चलना फिरना, बैठना उठना, पापार-विहार श्रादि मेंजीव हिमा हानी ही है। इस कारण मनध्य अपनी मार्ग क्रियाओं को ही यदि यन्त का देवे. नभी वह उम प्रकार की हिंमा से बच मकता है जैमा कि करना मनुष्यमात्र के लिय अमम्भव है। जैनाचार्यो ने मनुष्य जानि को मोचा नही, मा नहीं कहा जा मरता। यही कारण है कि उन्होंने इस अहिंसा को खूब अध्ययन आदि के बाद मनुष्य-प्रकृति के अनुकूल रूप देने का Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (=) कष्ट किया है। उन्होंने हिंसा के कई भेट तक किए हैं। उन भेदों पर यदि ध्यानपूर्वक मनन करने का कष्ट उठाया जावे, तो बड़ी सुगमता से वे समझ में आ सकते हैं । ள் (2) संकल्पी हिमा (२) श्ररभी हिमा (३) व्यवहारी हिंसा (४) विरोधी हिंसा | मंकल्पी हिंमा-कि.मी प्राणा की संकल्प कर मारने के लिये संकल्पी हिंसा कहा गया है। जैसे आप बैठे हुए हैं और कोई चिउंटी जमीन पर से जा रही है, उसे केवल हिंसक भावना से जान-युककर मार डालना । आरंभी हिंसा - गृहकार्य में स्नान आदि के समय में, भोजन बनाने या घर में झाडू बुहाम देने तथा जल पीने में जो अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा हो जाती है उसे कहा जाता है । व्यवहारी हिंसा व्यवहार में, चलने-फिरने में, जिस प्रकार कीमि होती है, उसे व्यवहारी हिंसा कहने में आता है । विरोधी हिंमा-विरोधी अर्थात् दुश्मनों से आत्मरक्षा करने लिये अथवा किसी श्राततायी से अपने राज्य, देश अथ श कुटुम्बी के रक्षा करने के लिये जा हिंसा करनी पड़ती है, उसे विरोध हिंसा कहते हैं । इसके पश्चात भी अहिंसा के जैनाचार्यों ने और भी भेद किए है। स्थूल हिंमा, सूक्ष्म अहिंसा, द्रष्य अहिंसा. भाव अहिसा देश अहिंसा, सर्व अहिंसा श्रादि । उपरोक्त विभिन्न अहिंसा के भेदों में श्रावक ( गृहस्थ ) के द्वारा आचरणीय तथा साधु-मुनि द्वारा आचरणीय अहिंसा में भी भेद है। इसका विस्तृत विवेचन अन्य किस ग्रन्थ में किया जायगा | Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद 'अनेक मिद्धान्तों का अवलोकन कर, उसके ममन्वय (मिलाप) करने के लिये यह शब्द प्रकट करने में पाया है । म्याद्वाद एकीकरण का दृष्टि-विन्दु हमारे सामने उपस्थित करता है। शङ्कराचार्य ने म्याद्वाद पर जो अाक्षर किए हैं. वे मूल रहस्य के माथ में मम्बन्ध नहीं रयते । यह निश्च। कि विविध पि विन्दुओं द्वारा निरीक्षण किए बिना कोई भी वस्तु मम्पूर्ण रुप में श्रा नहा मकती। इसीलिये स्याद्वान उपयोगी नथा साशंक है महावीर के मिद्धांत में बनाए गए म्याग्द को कितने ही लोग मशयवाद कहते हैं, इसे मैं नहीं मानना। म्यादाद संशयवाद नहीं है. किन्तु वह एक दृषि विन्द हमको उपलब्ध करा देना है। विश्व का किम गति से अवलोकन करना चाहिए यह हमें मियाना है। -काशी हि विश्वविद्यालय के भूतपूर्व प्रो बाइसlent तब संस्कृत साहित्य पुरावर विद्वान प्रो. मानन्द शर बा१माई yा जन नव ज्ञान की प्रधान नींव पाद्वान पर ही स्थित है, एमा देश तथा विदेश के सभी विद्वानों ने एक मन से बोकार किया है। कुछ धन्धा विद्वानों का नो यहाँ नक र मन है कि हमी म्यादाद के ही प्रताप से भगवान महावीर ने अपने प्रतिद्वनियों को पगम करने में अपूर्व मफलता प्राप्त की थी। जैन-नबज्ञान में स्याहादवाद का ठीक-टंक क्या अर्थ है. उसका यथार्थ जानने Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 1 ) का दावा बड़े-बड़े धन्धर विद्वान तक नहीं कर सकते । फिर मी स्याद्वादवाद को यदि इस प्रकार से कहा जाय कि यह मानव बुद्धि के एकांगीपन को भूचित करता है. नो अनुचित नहीं कहा जायगा । जन्मांध जिम प्रकार हाथी की खोज करना है. ठीक वैमी ही हमारी इस दुनिया की भी स्थिति है । यह वर्णन यथार्थ नहीं है, ऐमा कौन कह सकता है ? अपनी ऐसी स्थिति है. ऐसा जिमको समझ में पा जावे, बहो इन जगत में सर्वज्ञ या यथार्थ ज्ञानी माना या समझा जाता है। मनुष्य का ज्ञान एक पनी है. ऐसा जो समझे वही सान है। किन्तु बम्तविक में जो मम्पूर्ण मत्य है, उमे जो कोई - निना होगा, उम परम त्मा को हम अभी तक पहिचान नहीं मक। इमी ज्ञान में-म ही अहिंमा का इद्भव हुआ है। मति के बिना अन्य किमा पर अधिकार पलाया नहीं जा सकता। अपना मन्य अपने ही लिए काफी है, अन्य को उमका माक्षायार न होने पावे. उम ममय तक धैर्य रम्बना, इमी नि शे अहिमा नि कहने में अ'या है । मार्ग दुनिया शांति की खोज करना है । म संमार मित्राहि कहकर पुकार करना है फिर भी उम शांति का मार्ग उपलब्ध नही हाना । भारत का भूमि में इमी शांति का कभा का निश्चित करने में आया है। किन्तु उम शा। के मार्ग को मंमार का स्वाकार करने में अभी काफः 'बम्ब हाने का प्राशा है। दुनि । जब नक निर्विकार नहीं हो जान', नव नक भगवान महावीर की पूर्णतावाले मार्ग को उपलब्ध करना निनांत ही कठिन है। चाहे जो कुछ भी माना या कहा जावे, किन्तु इतना नो निश्चयपूर्वक हो कहना नथा मानना पड़ेगा कि जैन-धर्म का स्याद्वाद-दर्शन संसार के तत्वज्ञान में अपना एक बाम तथा निगला ही स्थान रम्बना है। स्याबाट का अर्थ होता है-वनु Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विभिन्न दृष्टि-विन्दुओं से विचार करना. देखना, या कहना । म्याद्वाद के भावार्थ में कुछ विद्वानों ने अपेक्षावाद का शब्द प्रयुक करने की कृपा की है। किसी एक वस्तु में अमुक-अमुक अपेक्षा ( सम्बन्ध ) से भिन्न-भिन्न धर्मों को स्वीकार करने ही को स्याद्वाद का नाम दिया जाता है। उदाहरण म्वरूप एक मनुष्य है । वह भिन्न भिन्न या अमुक-अमुक अपेक्षा या सम्बन्ध में पिता, पुत्र, चाचा, मामा, भतीजा, भांजा, पति आदि माना जाना है। उमो ढङ्ग से ही एक ही वस्तु में भिन्न भिन्न अपेक्षा से भिन्न-भिन्न धर्म माने जाते हैं। अब ममझने-समझाने के लिये हम घड़े को लेते हैं। एक ही घड़ा (घट ) है; उसमें नित्यत्व तथा अनित्यत्व आदि विभिन्न धर्म के दिखाई देनेवाले धर्मों की अपेक्षा दृष्टि में स्वीकार करने ही के नाम को जैन दर्शन के मिद्धान्न में स्याद्वाद दर्शन का नाम देने में आया है। ___घड़ा का दृष्टांत स्यावाट क समझनेवालों के लिये बड़ा ही युनियुक्त है। जिम मिट्टी में उस घड़े को कुम्हकार ने निर्माण किया है, उसी से ही उमने अनेक प्रकार के अन्य बर्तनों को भी नैयार किए होंगे। खैर, यदि उसी घड़े को फोड़कर वही कुम्हकार उमसे और अन्य प्रकार का बर्नन नैयार कर लेवे, तो कोई भी उम नवीन नैयार किए गए बनन को घड़ा न कहेगा। वही मिट्टी और द्रव्य रहने पर भी घड़ा न कहने का फिर कारण क्या है ! उमका कारण नो यही है न कि बम बनन का प्राकारप्रकार घडू का-सा नहीं है। इससे यह प्रमाणित होता है कि घड़ा मिट्टी का रहने पर भी उसका एक प्राकार-विशेष है। यहाँ यह ध्यान में रखना उचित है कि आकार-विशेष मिट्टी में एकदम ही भिन्न नहीं हो मकना । एक ही मिट्टी आकार परिवर्तन के जरिए घड़ा, नाद, सकोग तथा मटका श्रादि के नामों से Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम्बोधित करने में प्राने हैं। इसप्रकार यह निर्विवाद है कि इमप्रकार जो भिन्न-भिन्न भाकारबाले पदार्थ बने रहते हैं, वे मिट्टी से पृथक नहीं है और वे ऐसे पृथक हो भी नहीं सकते। इमप्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि घड़े का श्राकार तथा मिट्टी दोनों ही घड़े के कप में मौजद है। अब यहाँ इस बात को देखना नथा ममझना है कि इमप्रकार के पदार्थ के जो दो रूप होते हैं. उनमें विनाशी म्प कौनसा है और स्थायी कौनसा ! यह तो ममी को प्रश्यक्ष दिग्बाई या ममम में आ सकता है कि घड़ा का प्राकार-प्रकार ही विनाशी है। इसका कारण यह है कि वह फुटता है, जिससे उमका म्प आदि नष्ट-भ्रष्ट तक हो जाता है और घड़े का जो दूमरा प मिट्टीवाला है वह अविनाशी ही रहता है। क्योंकि उसका विनाश कभी भी नहीं होता। उसे जिस-किसी रूप में परिवर्तन क्यों न कर लिया जावे, किन्नु वह मभी स्थानों पर जाकर अपने मिट्टीपन को उसी कर में कायम रखता है। इमप्रकार के मारे विवेचन नथा कथन का एकमात्र लक्ष यह है कि ऊपर जो घड़ावाला पदार्थ हमन लिया था, उमके दो रूप थे-कम्प विनाशी और दूमग रूप अविनाशी। विनाशा को अनिस्य तथा प्रविनाशी को निस्य को सज्ञा दर्शनवादियों ने दी है। इसी तरह प्रत्येक वस्तु को नि पता तथा अनि यता प्रमाणित करनेवाले सिद्धांत को स्यावाद कहने में आता है। __स्याद्वाद के मिद्धान्त को नित्य और अनिय तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। मन् तथा असत् प्रादि रूपों में दिखाई देनेवाली बातें भी इसी के अन्तर्गत बाजानी हैं। इस बात को अनेकांत-जयपनाका में जैन तत्वज्ञान के प्रकांड भाचार्य श्री हरिभद्रपूरि ने इसप्रकार लिखा है: Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) यतस्ततः स्व द्रव्यक्षेत्रकाल भावरूपेण सद वर्तते, परद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण चासत् । ततश्च सखासच भवति । अन्यथा तदभाव-प्रसङ्गात् (घटादिरूपस्य वस्तुतोऽभावम. सङ्गात् ) इत्यादि। ___प्रत्येक वस्तु में उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश तीन गुण हुआ करते हैं। कोई भी वस्तु जब नष्ट हो जाती है, तो इससे यह कदापि न समझना चाहिए कि उसके मूल तब ही नष्ट हो गए । उत्पत्ति या विनाश नो स्थूल म्प का हुआ करता है। सूक्ष्म परिमाणु तो मदा स्थित रहते हैं। वे सूत्रम परिमागा अन्य वस्तुओं के माथ मिलकर नवीन वस्तु को जन्म दिया करते हैं। जैसे स्य की किरणों की गरमी में पानी नो मूम्ब जाया करता है। किन्तु इमस यह ममझ लेना कि पानी का ही एकटम प्रभाव हो गया, समझने वाले की भारी मूग्बंता है। पानी किमी. न किमी रूप मे अवश्य ही मौजूद रहता है। ऐमा जरूर संभव है कि उसका सन्म म्प हमको दिग्बाई न पड़े। यह अटल सिद्धान्त मानना या ममझना चाहिए कि ममार की कोई भी मूल वस्तु न ना नही होती है. श्रीर न नवीन ही पैदा हुश्रा करनी है। इन मृल तत्वों में जो नानाप्रकार के परिवर्तन आदि होते हुए जर पाते हैं, वही विन श तथा उत्पादन की सांसारिक किया है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि सारे पदार्थ ही त्पत्ति स्थिति तथा विनाश आदि नाना ही गुणोंवाले हैं। इन तीन गुणों में जो मूल व मदा-मवंदा स्थित रहमी है, जैनधर्म शास्त्र में से ही द्रव्य कहने में श्राता है, और जिनकी त्पत्ति और नाश होता है उसे पर्याय कहने हैं अर्थात् इन्य के मम्बन्ध से प्रत्येक पदार्थ निन्य और पर्याय के सम्बन्ध में Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (14) अनित्य होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु को न तो एकान निन्य ही है और न नो एकान्त अनित्य ही मानना चाहिए। अर्थात् नित्यानित्य मानना ही ध्यावाद या अनेकान्तवाद है। मी पर जैनाचार्य हरिभद्र सूरि का कथन है:मट म पस्य वस्तुनी व्यवस्थापिनत्वात् / सवेदनस्यापि च वस्तुन्वान तथा युक्ति मिद्धश्च / तथाहि संवेदनं पुरोऽव्यवस्थिन घटाढा नदमावेन ग भावाध्यवमाय रूप मेनोपजायते " न च सदसदप वस्तुति सन्मात्र मानभी स्वये तत्वत् स्तन पानभास्येव, मम्पूर्णाथा प्रतिभामनात् / नरसिंह-सिंह मंत्रदनवन / नचंत उभय पनि मामिन संवेद्यनं तदन्य विविक्तना विशिष्ट स्यैव मंवित्त / तदन्य विविक्तत्ता च भारः / ___ERका तात्पर्य यह है "मदमदप वस्तु का मल मदात्मक ज्ञान ही ममा ज्ञान नहीं है। कारण यह है कि वह उस वस्तु के पूर्ण अर्यको प्रकट नहीं कर मकना / जिम प्रकार कवल सिंह के मान-मात्र में नामिह का ज्ञान पूरा नहीं हो सकता / अतएव जैनदर्शन का मुग्य अङ्ग उमका स्याहाट बाला सिद्वान्त ही है। एक ही वस्न में विभिन्न देश, काल और अवस्था ओं की अपेक्षा में अनेक विरुद्ध या अविद्ध धर्मों की मम्भावना हो सकती है। अ-: एकान्न गति स अमुक वस्तु में हा अमुक धर्म है दूमग नही. मा कहना मिथ्या है। द्वाद यह वानुमात्र को पूर्णगति स पहिचानने का नाम है / इसका अनेकांनव द भी कान में आता है। इसक द्वग प्रत्येक मनु की परीक्षा काने पर वस्तु का माप यथार्थ कप में प्रकट हो जाता है। इस सिद्धान्त को जानने और पालन करने से जगत का बैर-पिराध शान्त हो सकता है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वधर्म और जैन जो धर्म सामाजिक शान्ति में जितना ही अधिक आत्मिक उन्नति के मार्ग के पति व्यक्ति विशेष को ले जाने की शक्ति रखता है, उतनी ही अधिक मात्रा में वही धर्म विश्वव्यापी धर्मों की श्रेणी में उच्चता की श्रेणी का गिना जाता है। सामाजिक शांति में कौन-कौनसे ऐसे गुगा है, जो बाधक हुआ करते हैं और उनके अतिरिक्त कौन कौन ऐसे गुण हैं, जो उनकी उस प्रकार की शान्ति का बढ़ानेवाले कहे जा सकते हैं। इसी बात की पक्ष करने से हम अपने लक्ष पर पहुंचने में समर्थ हो सकते हैं। धर्मिक दृष्टि से इन बान पर हम पकाश न डालकर कैवल सामाजिक दृष्टि से ही यहा पर कुछ विचार करेंगे | हिसा. क्रूरता. बन्धु विद्रह तथा व्यभिचार आदि कुछ सामाजिक दुगु ऐसे हैं, जिनको हम समाज में अशान्ति पैदा करनेवाले कहे तो अनुचित नहीं कहा जा सकना । उमी के विपरीत धर्म, दया. नम्रता, बन्ध प्रेम तथा ब्रह्मचर्य आदि की शिक्षएँ ऐसी हैं, जिनके प्रस्तार होने से समाज में शान्ति को अटल बनाए रखने में महायता प्राप्त होती है। जिस धर्म के द्वारा पहलेवाने दुगुगों के प्रति हेय दृष्टि तथा दूसरे गुणों के पनि आपूण दृष्टि से देखने का शिक्षा तथा योजना प्राप्त होती हा, उसी धर्म के द्वारा व्यक्ति को, जानि का, देश को तथा विश्व को लाभ होता है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतना जानते हुए भी इसमें एक बड़ी भयकर बाधा उपस्थित हुआ करती है। इस प्रकार की बाधा मनुष्य प्रकृति के कारण समाज में बगवर ही पैदा होती रहती है। प्रत्येक मनो-विज्ञानशानी हम बान को भली-भांति से जानता है कि मानव जानि अर्थात मनुष्य पाणी प्रकृति दोष तथा गुणों का सम्मिश्रण या मष्टि है। जहाँ उसमें अनेक अच्छे अर्थात् देवोचित गुणों का समावेश रहना है, वहीं पर उन में अनेक बुरे या असुगंचिन दुगुणों का भी समावेश रहना अनिवार्य है। इस प्रकार की मनुष्यप्रकृति की कमजोरी का रहना इतना अटल तथा अनिवार्य है कि मंमार का कोई भी धर्म कसा भा काल में उसका दूर करने में न कभी सफल ही हुआ है. और न भविःय में ही वह सफल होने की आशा कर सकता है। यह नितांन ही असम्भव है कि मुष्टि की य क प नचा घातक प्रवृनियों बिल्कुन हो विनष्ट होकर रहेंगी । प्रकृति के अन्नगन सदा-मयंदा ये रही हैं. और रहेंगी। अनाव ऐमा आशा करना एकटम हो व्यर्थ है कि काई भी धर्म इन कुप्रवृत्नियों का नाश कर विश्रव्यापी शान्ति के प्रमार करने में मफल ही हो जायगा। हां, इतना जरूर हो सकता है कि प्रयत्न करने पर मनुष्य समाज में कुपवृत्तियों की संख्या में कमी तथा म.पत्तियों की स ख्या में प्राधिक्य हो सकता है। इस प्रकार यह प्रमाणित हो जाता है कि जो धर्म मनुष्य को सत्पवृत्तियों को निकालकर मामाजिक शानि को रक्षा कर मनुष्य जात को आत्मिक उन्नति का मार्ग बतलाता है, वहीं धर्म अंट है। इमी कसौटी पर यदि जैन धर्म का रखका कमा जाये, ता उसका जौहर स्वयमेव ही म्वुलक रहेगा। जैन-धर्म के अन्तर्गन Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७ ) प्रत्येक भावक अर्थात् गृहस्थ के लिये अहिंसा, सत्य, पाचार, ब्रह्मचर्य और परिग्रह-परिमाण मादि पॉपअणुव्रतों की योजना करने में पाई है। जैन-धर्म-प्रवर्तक अर्थात जैनाचार्य यह अच्छी तरह से जानते थे कि साधारण मनुष्य प्रकृति इन बातों को सूक्ष्म रूप से पालन करने में असमर्थ होगी। इसी कारण हो उन्होंने मनुष्य-प्रकृति को साधारण गिनी जानेवाली इन्ही बातों को मूक्ष्म रूप से पालन करने को माझा भावकों के लिये देने की कृपा भी की है। जैन धर्म के मनानुमार यदि समाज में समष्टि रूप से उपरोक्त पाँचों धृतों का स्थूल रीति से पालन होने लग जाय और प्रत्येक मनुष्य यदि महिमा के सौंदर्य को, सत्य की पवित्रता को, प्रमचर्य के तेज को तथा सादगी की महत्ता को ममझ जायें, तो इम बान को दावे के माथ स्वीकार करने में आ सकता है कि मनुष्य-ममाज में शान्ति का साव भीम प्रचार, प्रस्तार आदि हुए बिना नहीं रह सकता।। ___ संसार में आज जहाँ भी अशान्ति तथा कलह के जो भी दृश्य आदि देखने को मिलते हैं, उन सभी का मुख्य कारण इन्हीं पांचों वृतों की कमी का होना ही है। अहिंसक प्रवृत्ति के अभाव के कारण संसार में हत्या तथा करता के नग्न दृश्य नित्य देखने को मिला करते हैं। सत्य की कमी ही के कारण ससार में धोखेबाजी नथा बेइमानी भादि नजर पड़ता है, जिसके लिय न्यायालय तथा पञ्चायतों आदि में हजारों-लाखों की संख्या में मुकदमों की पेशियाँ नित्य-प्रति संसार के भिन्न-भिन्न स्थानों पर होनी रहती हैं। उसी प्रकार ही ब्रह्मचर्य के प्रभाव के कारण संसार में अनाचार, व्यभिचार आदि के दृश्य हमें निन्य देखने को मिला करते हैं। साथ ही संसार में सादगी के विरुद्ध Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिलामिना आदि का बालवाला मर्वत्र देखने में आता है। यही वाम कारण है कि हमें प्रत्येक समाज तथा देश में विलासमन्दिरों में मनुष्य जानि का अधःपतन देखने को मिलता है। यह निर्विवाद है कि मनुष्य जानि की इन कमजोरियों को घर करने के लिय चाहे लाम्बो प्रयत्न क्यों न किए जावें, पर वे कदापि दूर नहीं की जा सकती। फिर भी इतना नो जमा ही हो सकता है कि इन मितिों के प्रचार करने से इसप्रकार को कमजोरियों में कुछ कमी जरूर आ सकती है और बर्षग्ना के विरुद्ध सभ्यता की मात्रा में कुछ वृद्धि भी हो मकती है। इन सिद्धान्तों का जितना ही अधिक प्रचार मनुष्य समाज में होता जायगा, उतनी ही अधिक शांति की वृद्धि भी मनुष्यममाज में होगी। इस दृष्टि से यदि म्बुली आंग्वा तथा खुने हृदय मे विचार किया जाय. नो यह स्वीकार ही करना पड़ेगा कि जैन धर्म का प्रभाव सारे संसार पर ममान गति से पड़ता है। आत्मिक तथा प्राध्यामिक उद्धार के पनि भी संसार के अन्य धर्मा के मुकाबिले में जैनधर्म को क'को उन्ननपूण मानना नथा कहना ही पड़ेगा। महात्मा बुद्ध मरीब पहुँचे हुए महान पुरुष नक ने जैन धर्मावलम्बियों की तपस्या की भूरि-भूरि प्रशंशा को है। इसके लिये विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिये 'मझिम निकाय' नामक बोट प्रन्थ का अवलोकन तथा मनन करन को आवश्यकता है। इसपकार यह निर्विवाद है कि यदि जैन धमावलम्बी गण अपने धर्म के प्रचार के पति विशेष ध्यान देने की कृपा करें, तो जैन-धम को विश्व-धर्म का उच्च स्थान अवश्य पान हो सकता है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन वैदिक दर्शन. बौद्ध दर्शन की तरह हो जैन-दर्शन भी काफी समनपूर्ण स्थिति पर है। जैन-माहित्य में ये पागम के नाम से प्रसिद्ध है। उनमें आध्यात्मिक विकाम का मार्ग बहुत ही सुव्यस्थित रूप से प्राप्त होता है। यह जहर है कि उनमें उस प्रकार के यात्मिक उन्नति के मार्ग के नौदह विभाग करने में आए हैं। उन्हें गण म्यान के नाम से मम्बोधन करने में पाता है। गुण स्थान आत्मा को माम्य नवचेतना, वीर्य, चरित्र आदि शनियों को गुण नाम मे सम्बोधन करने में आता है और उन शनियों की नाग्नम्यावस्था को स्थान कहने में आता है। हम जिसप्रकार मूर्य के प्रकाश को बादलों में छिपा हुआ देखते हैं. ठीक उमी प्रकार आत्मा के स्वाभाविक गुण भी कई प्रकार के आवरणों में छिपकर मांमारिक दशा में प्रावृत्त रहते है। हमप्रकार के आवरणों को शनि ज्यों ही ज्यों नाग होने लगती है । अर्थात् जिमप्रकार बादल के फटने या हटने से मूर्य का प्रकाश अपना प्रभाव प्रकट करने लग जाना है, ठीक उमी प्रकार इन प्रावरणों के क्षय हाने से श्रामा के स्वाभाविक गुण भी प्रकाशमान होने लग जाते हैं। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) जैन प्राचार्यों ने स्थूलतम उनकी चौदह स्थितियाँ बनलाई हैं। गुण स्थान की स्थिति मुख्य रूप से मोहक कर्मों की प्रबलता या निर्बलता पर निर्भर करती है। मोह पैदा करनेवाले कर्मो की दो प्रकार की प्रधान शक्तियाँ प्रकट करने में आई हैं(१) दर्शन (२) चरित्र । दर्शन शक्ति का कार्य प्रात्मा के वास्तविक गुणों को पालन करने का है। चरित्र शक्ति का कार्य प्रात्मा के चरित्र गुण को ढंक देने ___ यही खास कारण है कि आत्मा नात्विक रुचि तथा सत्य दर्शन होने पर भी उसके अनुसार अग्रसर होकर अपने वास्तविक स्वरूप को जानने में अमम; रहती है। उपरोक्त दोनों ही प्रकार की शनियों में दर्शन मोहवाली शक्ति अधिक प्रबल गहती है। जब तक वह शक्ति निर्मल नहीं बन जाती. तब तक चरित्र मोहवाली शनि का बल घट नहीं मकना । दर्शन मोहवाली शक्ति का बल घटते ही चरित्र माहवाली शक्ति का बल कमशः घटने लग जाता है और अन्त में वह शक्ति एकदम से ही नष्ट तक हो जाती है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय. मोहनीय. वेदनीय, आयु, नाम नथा गोत्र आदि पाठ कर्मों में मोहनीय सबसे प्रधान नथा बलवान है। उसका मुग्य कारण यह है कि मोहनीय कर्म का जब तक प्राबल्य रहता है. तब तक अन्य कर्मो का बल घट नहीं मकता और उसकी ताकत घटने के साथ-ही-साथ अन्य कर्म भी क्रमशः आप-ही-श्राप हाम को प्राप्त होने लग जाते हैं। यही मुख्य कारण है कि गुण स्थानों की कल्पना माहनीय कम क तारतम्यानुसार ही करने में आई है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला गुण स्थान अविकास काल है, दूसरे तथा तीसरे में विकास का स्फुरण होना प्रारम्भ हो जाता है। किन्सु फिर भी प्रधानता अधिकाम को ही रहती है। चौथे गुण स्थान से विकास का कार्य अच्छी तरह प्रारम्भ हो जाता है और इसी चौदहवें गुण स्थान पर जाकर प्रारमा पूर्ण कला पर पहुंच जाती है। उसी के बाद मोक्ष प्राप्त होता है। इसो को हम संक्षेप में इस प्रकार भी वर्णन कर सकते हैं। पहलवाले तीन गुणस्थान अधिकास के हैं और अन्तिम शेष के ग्यारह विकाम काल के हैं और उसके पश्चात मोक्ष का स्थान रहना है। ___ या विषय बन ही पदम नया गूद होने से जन-धर्मावलम्बी ममाज इसके पति बहुत ही कम ध्यान देती है। किन्तु यदि वे धैर्य से काम लेवें तथा इमको ममझने के प्रति भी विशेष रुचि रखने की चष्टा करें, तो बहुत ही सरलता से उन्हें समझा जा सकता है और उसके पति सभी का ध्यान भी प्राकृट हो सकता है। यह प्रास्मिक उन्नति के लिये विवेचनावाली स्थिति है। इसी को मोक्ष-मन्दिर की मोदी भी कहें. तो भी अनुचित नहीं कहा जा मकता | जिम प्रकार मनुष्य मकान की छत पर जाने के लिये मोदो या जीने का उपयोग या सहायता लेने हैं और उसकी एक-एक सोढ़ी चढ़कर जल्दी या देर से छत पर पहुंचते हैं-ठीक उसी प्रकार. मोक्ष मन्दिर की छत पर चढ़ने के लिये चौदह गुणस्थानवाली मीढ़ के द्वारा देर या जल्दी से चढ़कर मनुष्य मोक्ष मन्दिर के द्वार में प्रवेश करने में ममर्थ हुश्रा करते है। चौदा गुणस्थान ( १ ) मिथ्याव ( २ ) मासादन ( ३ ) मिश्र (४) अविरत Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) सम्यक दृष्टि (५) देशविरति (६) पमत्त (७) अपमान (८) अपवकारण ( ६ ) अनिवृत्ति ( १०) मूत्ममंपराय ( ११ ) उपशांत मोह (१०) क्षाण मोह ( १३ ) संयोग केवली तथा (१४) प्रयोग केवली। जैन शास्त्रकारों ने प्रात्मा की आठ दृष्टियों का वर्णन किया है. उनके नाम ये है-मित्रा, नाग, बला, दीपता, स्थिरा, कांता, प्रभा और पग। इन दृष्टियों में प्रात्मा की उन्ननि का क्रम है। प्रथम दृष्टि में जो पोष होना है, नमके प्रकाश को तृणाग्नि के उद्योत की उपमा दी गई है। उम बांध के अनुसार उम दृष्टि में सामान्यतया द्वनंन होता है। इस स्थिति में से जीव जैसेजैसे ज्ञान और वर्तन में आगे बढ़ता जाना है नैसे ही नैसे उसका विकाम होता जाना है। झान और क्रिया की ये अाठ भूमियाँ हैं। पूर्व भूमि की अपेजा उत्तर भूमि में ज्ञान और क्रिया का प्रकर्ष होता है। इन आठ दृष्टियों में योग के प्राट अङ्ग जैम-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि क्रमश सिद्ध किए जाते हैं। इस तरह प्रामोन्ननि का व्यापार करते हुए जीव जब अन्तिम भूमि में पहुँचना है, नब उसका आवरण क्षीण होता है और उमे केवल ज्ञान मिलता है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक तथा साधु जैन समाज के दो अङ्ग है ( १ ) श्रावक ( २ ) साधु । उनके कर्तव्यों के बारे में जैनाचार्यों ने प्रावक धर्म तथा माधु धर्म नामक दो शीक देकर काफी विवेचन किया है। श्वेतांबर नया दिगम्बर साहित्य भण्डार में इनपर काफी पुस्तके अपने-अपने मन को पुष्ट करने के लिये स्वतन्त्र रूप से लिग्यने में आई हैं। •ितु दिगंबर-मंप्रदाय की रखकरगड श्रावकाचार' शीर्षक पुस्तक ग्वाम तौर से श्रावकों के लिये मननीय है। माधु-धम पर हम यहाँ पर विशेष कुछ लिम्यना नहीं चाहते। कारण जन धम-प्रकाश पुम्नक श्रावकों के ही लोभाय नैयार करने में पाई है: क्योंकि माधों के लिय संमार में कोई वाम कम करने को नहीं रहना। श्रावक धर्म पालने के लिये मुख्य बारह त्रत बतलाए गए हैं। (:) स्थूल प्राणातिपत विग्मण (२) स्थूल मृपावाद विरमण (३) स्थूल अदत्तादान विरमग (१) स्थूल मेथुन विरमण (५) परिग्रह परिणाम (६) दिग्वन (७) भोगापमांग परिमाण (5) अनथ दण्ड विपति (६) मामायिक (१०) देशावकाशिक (११) पोषध (१२) अतिथि संविभाग। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानों के मत १- भाषा में हिन्दू धर्म की पुस्तकों के सुप्रसिद्ध अनु. पाठक तथा रचयिता मुमिद्ध विद्वान श्री सुत्रनलाल वमन एम. १० ने अपने उ मामिक पत्र के जनवरी सन १९११ के बा में 'महावीर स्वामी का पवित्र जीवन' शीर्षक लेख में लिखा है: गये दोनों जहान नज़र से गुज़र । तेरे हुस्न का कोई पशर न मिला। ( भावार्थ-पीछ का तथा यह (वनमान ) दोनों काल हमाग चला गया, परन्तु हे प्रभो । मेरे जैमा पवित्र बाज नक हमको कोई भी न मिला ।) "ये जैनियों के प्राचार्य गुरु थे। पाक दिल, पाक ख्याल, मुजम्सम पाकी* व पाकी जजी थे। x x x » उन्होंने नमार के पाणी मात्र की भलाई के लिये सवका त्याग किया x x x x जानवरों का खून बहाना रोकने के लिये अपनी जिन्दगा का म्वन कर दिया । ये अहिमा की परम ज्योतिवाली मूर्ति है। वेदों की अति "अहिंसा परमो धर्म:" कुछ इन्हीं पवित्र महान पुरुषों के जीवन में अमली सूरत इख्तियार करती हुई नजर आती है।" x x x x इनमें त्याग था. इनमें वैराग्य था, इनमें धर्म अद्वितीय। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) का कमाल था, यह इन्सानी कमजोरियों में बहुत हो ऊँचे थे। इनका खिताब जिन है । जिन्होंने मोहमाया को जीत लिया था, ये तीर्थर हैं। इनमें बनावट नहीं थी। २-श्री कमोमल-जैन धर्म' एक ऐमा पाचीन धर्म है, जिसकी उत्पनि तथा इनिहाम का पता लगाना बहुत हो दुर्लभ बात है। ३-जर्मनी के डॉ. जॉनम टेल-मैं अपने देश वासिमें को दिखाऊँगा कि कैसे उत्तम नियम और उचे विचार जैन. धर्म तथा जैन प्राचार्यो में है। जैन-माहित्य बौद्ध साहित्य से काफी बढ़-चढ़ कर है। ज्यों ही-ज्यों में जन-धर्म तथा उनके साहित्य को ममझता हूं, त्यांहास्यों में उनको अधिकाधिक पसन्द करना है। ४-फ्रांस के डा० ए० गिरनार-मनुष्यों की उन्नति के लिये जैन-धमका चारित्र बहुत ही लाभकारी है। यह धर्म बहुत हो ठीक, स्वतन्त्र, मादा तथा मूल्यवान है। प्रापरणों के पर्चालन धर्मो से बह एकदम ही भिन्न हैं । माथ-ही-साथ पांदधर्म की नरह नास्तिक भी नहीं है। ५ श्रीवरदाकांत मुखोपाध्याय एम० ए०-जैनधम हिंदू धम से मवथा स्वतन्त्र है। उसकी शाग्या या रूपान्तर नहीं है. पाश्वनाथ जैनधर्म के मादि प्रचारक नही थे, किन्तु इसके प्रथम प्रचारक भगवान ऋषभदेव थे। ६-स्व. डॉ. रवींद्रनाथ टैगोर-महावीर ने डिमहिम नाद में भारत में ऐसा सन्देशा फैलाया कि धम यह केवल सामाजिक Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि नहीं है, किन्तु वास्तविक मस्य है । मोक्ष यह बाहरी क्रियाकांड पालन में पास नहीं हाता, धर्म तथा मनुष्य में कोई स्थायी भंट नहीं माना। कहने हुए पाश्चय होता है कि इसपकार को शिक्षा ने ममाज के हृदय में जद रूप में बैठी हुई भावना रूपी विनों को स्वग से भेट दिए और देश को वशीभून कर लिया। इसके पश्च त् बहुन ममय नक x x x x ब्राह्मणों की अभिभून हो गई थी। ___७-बोलपुर के ब्रह्मचर्याश्रम शानिनिकेतन के अधिष्ठाता नेपालचन्द्रराय-मुझको जैन तीर्थकों की शिक्षा पर अतिशय कि है। ८-जर्मन ना. हमन जेकोबी-जैन-धर्म के बार में कुछ भी लिम्बना मेरो कलम का नाकन के बाहर की बात है महत्मा गाँधी नथा लोकमान्य तिलक आदि के भी जैन धर्म के बारे में उत्कृष्ट विचार रहे हैं। उल्टी के कारण हम उन्हे सपा नहीं कर मक है। हमारे प ठ उसके लिये न । कगे। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगी शिक्षाएँ १- ईश्वर एक है, नाम अनेक हैं। :- किसी का बुरा मत चाहो । ३ - हो सके तो किसी की मदद करो, नहीं तो कम से कम किसी का कभी मत दो | ४ - इच्छाओं को कम करो । ५- कठिनाइयों में ईश्वर को याद करो । ६- दुनियाँ के भोगों का आवश्यकतानुसार और तोर दवाई के उपभोग करो। ७ - इस मुसाफिरखाने से मुहब्बत करो, लेकिन इतनी कि जिससे घर न भूल जाय । सन्तोष से बड़ा दूसरा धन नहीं है। ९ - दुनियाँ से दिल न लगाओ और मौत को याद रखी, लेकिन नेक काम करने के समय अपने को अमर समझो । १० - जीवन का लक्ष्य भगवत् प्राप्ति है, मोग नहीं, इम निश्चय से कभी न टला और सारे काम इस लक्ष्य की साधना के लिये करो । १४ - निकम्मे कभी न रहो । १० म्वावलम्बी बनकर रहो। दूसरे पर अपने जीवन का भार मत डालो । १३ - विलासिना से दूर रहो, अपने लिये खर्च कम लगाओ, बचन क पैसे गरीबों की सेवा में लगाओ । १४ - मन, वचन और शरीर से पवित्र, विनयशील, और परोपकारी बनो । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) १५-पन कमाने में इल, कपट, चोरी, असत्य और ईमानी का त्याग करो। अपनी कमाई में यथायोग समी का हक मममो। -नियों के बरा न होकर उनको वश करके उमसे यण योग काम लो। परिमम, व्यायाम और नियमादि के नागशरीर को नीरोग रखो। ___ -ममा हास्याग कगे। धुरे मन से बुरी वृति होती है और सर्वथा पतन हो जाता है। १-अपने लक्ष्यको सहमदा यात सम्बो । प्रत्येक चटा लक्ष्य की मिदिही के लिये करो। -संसार में रहो, पर उमक होकर न रहो । पृथक गहना बस इसी सिद्धान्त पर चलने से मुकि हो सकती है। १-तुम्हें दुनियों में कोई हानि व लाभ नहीं पहुँचाता । जैसा बोज पोते हो, वैमा हो फल नुम्हें मिलता है। -कवल अपनी नामममी से तुम यदि संमार के लोगों को लाभ न पाओगे तो स्वयं हो तुम अपने शत्र, बनोगे। २३-म शरीर में तुम्हारी पारमा बिजली के ममान एक क्षण में निकला जायगी भोर फिर तुम ऐसे अन्धकार में केक दिए जागोगे कि जहाँ न कुछ देख सकोगे और न कुछ कर हीमकोगे। ___४-भला काम पाहे थोड़ा ही क्यों न हा. वह भी हीरे के ममान प्रकाशमान होता है। ५-अगर तुम योग और तपस्या करने में मनमर्थ हो तो मंबन्धन से छुटकारा पाने के लिये यही सरल मार्ग है कि अपने हदय में बुरी भावनाएं पैदा मन होने दो। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ realia Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्फलना मा. निप ही अविरद्ध हो, अनपम गिग। ये नान गुण जिम में प्रगट वह देव है नहिं दूमग ।। या बुद्धी श्रीकृष्ण हो. या शाम हो श्रीगम हो। बम भर-भाव बिना उमे. कर जोड़ नित्य प्रणाम हो ।। मको मद्वान मय, निष्पक्षता की दृष्टि में। निहास के पन्ने उलटिए. आप इसकी पुष्टि में ।। हो चुका है मिटि जग में जन-धम अनादि है। कार यग्ने ता जग की न वाद-विवाद है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म { लेम्बक-पूज्य श्री 108 प्राचार्य विद्यालंकार श्रीहीराचन्द्र मूरिजी महागज-काशी ] पक्षपाता न ये बीरे, न द्वेषः कपिलादिषु / युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य परिग्राः / / -हरिभरमूरि १-जन-धर्म क्या है ? श्राम धर्म को जैन धर्म कहते हैं, गगदंप की विजय करने पर प्रान्मा स्व स्वरूप में प्रार होती है, उमी भागमभाव में प्राने के लिये ही धार्मिक नियम. वन, अनानादि है। ग्राम स्वभाव हो को प्रारम धर्म कहते हैं, जिसके गुण हैं-ज्ञानोपयोग, दशनी पयोग, चारित्र, न, वाय आदि / पुदगलामकिसे ही प्रामा परमभाव में प्रामक होती है. इमम बम घबरा जान नही मानी, हम प्रयापन जीवों को 'वहिगामा किया जिमको जैन परिभाषा में मध्यायी और वैदिक परिभाषा में उम' को मुद्दामा कहते हैं। श्री जावों का मंमार है. मुनि का मार्ग साप का बाप किया श्रात्मज्ञान है। सबभाव किंवा स्वधर्म में स्थिरता ही को धर्म पालन करते हैं। यही शान्ति का प्रपन धम है। जिनपर का उपदिष्टहीने में पी को जन-धर्म कहो। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) २-जैन-धर्म के स्थापक कौन हैं? जैन धर्म के संस्थापक कोई भी नहीं है। जीव द्रव्य जब अनादिसनातन है, नब उसका स्वभाव किंवा धर्म भी अनादि-अनन्त और सनातन होना ही चाहिए। इम धर्म को ममझानेवाले, उपदेश देनेवाले, किंवा इस धर्म के प्रकाशक व्यावहारिक दृष्टि से इस काल की अपेक्षा से भगवान श्री ऋषभदेवजी है, जो जैन-धर्म कोपीस नीरों में से मर्वप्रथम नोर्थवर माने जाते हैं। जिन कौन है? रागा पाटि पाएमा के अरि दुगुगों के विजेता प्रारमा को जिन कहते है। ४-मिन मूर्तियों से किंवा वीतराग प्रतिमाओं से क्या शिक्षाएँ मिलती हैं ? जिन प्रतिमाएं आत्मा को वीनगग ज्योतिर्मय बनाने में प्रधान प्राण मायन है तथा वीतगग अवस्था एवं प्रारमयान में रहने की य शिना देती हैं। जिन प्रतिमाएं वीतराग योनि की प्रदर्शिका है। इस कारण मान-मार्ग को वे दीपिका म्वाप हैं। ५-जैन मस्कृति क्या है ? प्राणीमात्र क पोद्गालक मोनिक) श्रासन को हटाकर, उन्हें पारिमविभूति के प्रनि प्रापित करना है नथा प्रान्म गुणों पोर माभ्यास्मिक मुग्यों का उन्हें उपभोक्ता बनाना है। एव विशिष्ट संस्कारों को रखकर विशिष्ट व्रत नियमादि का प्रव. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लम्बनमाकर जीवों को जन्म-मरणात भर बिनामों से मुहिक नेपाली पवित्र माध्यात्मिक शिक्षा ही जन कति बोहैं। जैन-धर्म में जो लिगंबर मेताका भारि शाया है। ये मुनि भाभिन है. जैन-धर्म में काई भी अन्ना नहीं है। ६-मरिमा का स्वरूप क्या? ना. मन, बनन, काया में धमाक माय प्राह युति, मनप्रा, भान. पाकर, मा.याग. मामाय. विनय नया विवे: प्रादि प्राम प्रतियों का नाम प्रतिमा है. जिसका मांश पालन मुन जायन में श्रीराम बसवनग ना. जिम धिम्नच्यारा नाममा मकान ७ जिन मनिसा की पूजा कयों को जाना? बिना यानगग प्रवाना कर मामना क. कम पान का परपण नामक', अनबीनसायका प्रधानमगदेव, बानमा गुम ). वनगा धम. यानगग काम्या पाय प्रालिका ने जमा कि... नानाग मान यागं बनावमन' यानगग ।। स्मरण क. यानगग यिनका प्रान करना है * इमान्य प्रामानि क. अभिलाषा का के लिय कंबल ०क बनगग प्रतिमा : पाप है. इसमय में जैन मगि ar.in श्रमम्या का समर्थन और विधन श्रीभगवद्गाना के द्वितीय अध्याय में नित मुनि लमण . मप में प्रकट करने में भाया है Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) में जिन प्रतिमाएं विराजमान को जाती हैं. जिसमें विशुद्ध श्राशामिक नगा जगाति का यथार्य शांत भाव प्रकट होता है, माधना में यही विशिष्ट सहायक होने से प्रतिदिन वीतराग निमा का दर्शन, पूजन, गुग्णानवाद वंक जीवमात्र के लिये कल्याणप्रटी ८-प्रान्मा-परमात्मा को परिभाषा क्या है। मगीरी. मापायी, (ध. मान, माया, लोभ ) विषयी पांच इनिरे नेम विषगं क' माना जंवा को मंमी जीव करने हैं, जिनका न्म मरण होना है, ८ लक्ष जीव गोनियों में भ्रमग ना... ममारी जीवों की स्थिति है। इनमे व्यनिःि, प्रा. अनाहारी. अकपाया. अंबेदी ( निर्विकार ) श्रम विभूनि । अनन्न चतुक क भ ना ही परमात्मा कई, जान है. जाकि किंवा निम्मा धक. विट केवन तानसे यल, दान में परिणत प्राम- वर की प्रान का शानि परमात्म निक' को को परमात्मा का है यहा दोनों अवस्थाश्रम भेट न पार न कर, निगर दानी अनपा की है मनिह जनक मानः स्मरणीय म..मना पाममा निगकार अवस्थाओं क. 'यधन बिमा कमाई प र मार्ग नया : न ग्राम पवम्या यह म कार अवस्या का मूचक है। विदा पान घर को नगद में निगकार परमात्मा की उपासना की जाती है। ९-जैन-धर्म नाम इमका क्यों दिया गया ? यह धर्म विशिष्ट प्रमविद का प्रधान मिदान्न विधायक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। गोनगग शा का पानंहै, जब गग-रहित मनोवृत्ति होनी है. सभी वे वास्तविक में विवेकी पनते है। विवेकीजन ही मोक्ष-मार्ग के होते है. कारण गरेर में दरकम हाते हैं. जिम में चौगमील जाब-योनियों में प्रमाण हाना है। इमी भव-पापग में मुनि प्रान काने का प्रधान मचा मार्ग बोनगग नया का प्रापित है। यही प्रारम धम का प्राप्ति का प्रधान माग है। इस विस्थापन प्रारमा को जिन-निवीतराग-ध्यनज्ञ' मा : नाना पात्रियों में जेन जना सभी धर्म शास्त्रों में रम्य कान में पाया है। यार में कहा नाय मोरोमा का जायगा क. गगनक विजेताभी काया, धम. दमी में मकानधम ने और इसका शिंपना है: नाम का वन पनि मागणाय महामात्र जयकार है। इममें विशिष्ट प्रामपचायक पायागना। इममे किमा काitin नामा कास्थापना न जमे कि अन्य मी , सनका ६. नमक माला लागा जैन पता मम र क विशिए मिहान . माथ मय है. मायमरणशानी का मकना है। नियां । धर्म प्रमया निधनही कर मकर निगकार का मा . माकार iभा की मिडि करना है. नोकग किन्तु जैन-नशन ने अपने पधान इस नवकार महामन्त्र में परमंधर की दोनों ही अवस्थानों को मान्य देकर इमका निर्णय कर दिया है। मन्त्र में इन पदों को भाग पड़ों में स्थापन का है. अन्य नीन पर विशिष्ट अध्यात्मिक उन्नति के माधकों की नगर उनम स्थिति के परिचायक Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्राचार्य-उपाध्याय-साधु य नीन पर हैं। ये तीनों ही ईश्वरत्व पद प्राप्ति के प्रधान माधक हैं। ये तोनों ही माधक प्रात्म धमप मम्यग शंन, मम्यग प्रान, मभ्यग चारित्र, मम्यग नप की माधना करते हैं । पथम पद में अरिहन्त को साकारी. मग परमा-मावस्था, कंवन जान, केवल दर्शन मंयुक्त साकार परमेश्वर का स्मरण किया जाना है। इसके बाद में निवारण पद को प्राप्त होने पर वही अगे. अनाहारी आदि विशिष्ट स्थिति मम्पन्न कंबल विशद्ध परमात्मज्योनि को ही मिद्ध पट कहते हैं। इमी को श्रर की निगकार अवस्या कहते है. इसके प्राग में क्रमशः माधक इन दनों महान की स्थितियों को प्राप्त कर लेते है। यहां मव जवमात्र के लिये मान प्राप्ति का पधान मार्ग जन-धम हममे देश, कुल. जानि श्रादि की आवश्यकता नहीं होती कवल प्राम्मा की विशिष्ट योग्यता ही उम माग की अधिकारिणी भी है। यही अादश जनधर्म की विशेषता है। हमपर-म मापय ममझ में भामरगा कि हम प्रधान नवकार मन्त्र में पर पदों के गुणों का मन ही माधकों को लन्यवान बनाना है। इम महामन्त्र व्यवस्था में भी विशिष्ट मिलान्न एव विशिष्ट श्राम ग्धिति का परिचय और विशिष्ट माधना का महत्य प्रदशिन किया गया है। इसमें भी जैन दशन * विशिष्टना सिद्ध होती है जाव मात्र क. कल्याण का प्रधान यह धर्म है इसोस जंवमात्र या शुभचिन्तक यह धर्म हुआ। इसकी आगधना ह में मनप्य-जन्म मार्थक 'ना है। प्रान्म विशुद क. लिय पत्यक जीवमात्र को इस पवित्र जैनधर्म का अवलम्बन लेन' चाहिए। इसकी शिक्षा ये है: Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30 ) 'हे जीवो' यदि तुमको अब भी भवभ्रम की विडंबना का मयाब हुआ हो, तो अब भी मोजो कि इसके कारण क्या-क्या हैं ? इसको समझो तुम अनादिकाल में राग शक्श होकर दुष्कर्म करते रहे हो। अनन्नासाथ हिंसा बैर. विरोध चोदgeकर्म करते रहे हो उसी का यह फल है चोगम लक्ष व योनियों में अनन्तराल से जन्म-मरगा कर रहे - अब भी हम लोग मुक्ति नही पान कर मो | मनुष्ययोनि में आकर भी यदि हम सबको विचार होता है, तो आज जीवन के लक्ष का परिवर्तन करना होगा। गग कोयाग कर समस्थिति का उपासक होकर मय्य अहिमामय जीवन में स्थित रहकर नश लाक्षणिक अमधक उपासना मेचि रहना होनमा अनन्तकालीन सांसारिक भव विडंबना परिसमाप्ति होगी फिर क्यों हम लोग पाद में है । अत गतकाल के अनन्त भवन्रम में बने. अनन्त अपराधों क समन सामगा कर चोरामा लक्ष जीव योनियों के जाबो के साथ मंत्री भाव स्थापन करना आवश्यक 8 आज से जनमान के साथ द्रोह न कर पूर्ति दिन सविवेक के साथ, मंत्री भावपूर्वक परोपकार गुति से वर्तना उचित है। इस पवित्र तथा जन शिक्षा ने मनुष्यों की बिवेकी, विनयवान बनाया, विषय कपायों में मुक किया। उनकी दाना, शात्रवन, मगमी, पी एवं भावनामय जालान बनाया. जिसका परिणाम यह आया कि चराचर जगत में शान्ति का साम्रज्य स्थापित हुआ इसी विश्व प्रकृति जायां को अनुकूल मुम्बई यही जैनधर्म feer आरमधर्म का यथार्थ पालन का फल है. यहां जनदर्शन का मक्षिप्त रूपया है। है। जैनधर्म सिद्धांत का उपासक है, व्यक्तियों का नहीं । धर्म - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) मिवान्त पालने से ही व्यकियों का महत्व है। नवकार मन्त्र में सिद्धान्त की उपासना स्पष्ट है। पाँचों ही पड़ों में किमी भी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है, यही इमकी प्रधानता को मिद्ध करता है। उपगेन चर्चाम जैनःर्शन की विशिष्टना तथा उसके अनुरूप भाचार-विचारों का कितना अन विधान प्रादि है. जिमस जैन मार्ग का ज्ञान होता है. जिमको ममझने पर जीवमात्र स्वयमेव उमका अनमरण करने लगते हैं। नमी में जनदर्शन की महिमा पकट होनी है। शिक्षा जमान शन्य में नहीं यना है-माया का भी जान नहीं । महि-मश के लाग्य यनन में-नाश न ही चिरकाल कह ।। भर को क्या पड़ी हुई जो-से बना फिर चा किया। इससे जमत अनादि मिद्धका-मब झंगाट को दूर किया ।। सद् विश्रासन मद्धर के.-मटाचार क' प्राण कगे। इन तीनों को अपना कर के.-मद् मुम्ब पा जग-भ्रममा हंगे।। मय धर्मों का मार यह:- इमकी जांच भने कर ली म्याद वाट नय के काटे धर-फिर चाहे ना मन पर लो।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की रूपरेखा 1 पोफेमा । लेग्य-जीन्दगा भमान : प. प्रा '7 पङ्गनाय महनकरन यांतगग विज्ञान | नमई, नाहि जाने गये अनादि महान ।। जैन धर्म क्या है? ममा, 2 मर ग में भयम नहीका मनु, पा पता, यासक. . .८ पm नाना प्रकार के शाम पाह.. मी ime... धारण करने में नीर का कन, जन धर्म क्योंकि न तोयम पाया समाय मन-जनन कान दा.." माना। चनन पनि यक है न ।'' या पदा, लोन प्रदर्शन ... ' । बारपान ५.या जाता है न म... काय ना नही, या जनपम " ... ' धन का 'मदान है। फक. मि. जनधन य FAR -ना है कि जैन नगन प्रत्येक जीव को मना माजमा पन्ध मानना है और अपन. अपने कमानुमार उरला मा. मनता है। किमाथ हा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह भी मानना है कि ममार की प्रत्येक प्रान्मा अपने ज्ञान का पृगं विकास का परमात्मा बन सकता है । इमरने जैन-धर्म जीवमात्र का ग्या-चित्र क मा ही बना है। भिन्न-भिन्न नहीं। मीलिये जन्धम का यह दावा है कि मंमार में यही एक ऐमा धर्म कि वह प्रान्मधर्म के नाम से पुकारा जा मकना है। किन्तु अनादि काल के अज्ञान में इस जीव ने अपने स्वरूप को न ममझा. इलिये जर अननन पदार्थों में अपनापन मान रहा है। कम-पटल, जो हम अपने पाप का ज्ञान होने में बाधक हैं. उनके द्वारा प्रात्र मुम्ब दुम्य में अपने को सुखी दुःखी अनुभव करना है। जिन प्रात्माओं ने इम कर्म मल को ममझ निया, व इमे दूर करने में लग गये और अपने स्वरूप का ज्ञान भी न्हें होने लगा। यही जैन धर्म का काम है । प्रामधर्म की स्याग्या करने ममय जैन-दशनकारों ने -उनम क्षमा :-उनम मार्दव ३-उनम प्रार्जव - आम शोच ५-- म मर ६-उस्म मंयम ७-उत्तम नप .-.ाम त्याग 1-नाम प्राकिंचन १०-उनम ब्रह्मचर्य । यदश धर्म प्रामा क स्वभावाप प्रतिपादन किए हैं। १- उत्तम क्षमा पोरें दुष्ट भनेक, गांध मार बहुविधि करे । धरिये समा विवेक, कोप न कीज पीतमा ॥ क्रोध उत्पन्न होने के कारण दुनों की गाली. नाइनादि के होने पर भी कोध का उत्पन्न न होना जमा है। क्योंकि पास्मा जब मध्याम ग्म में मग्न हो जाता है. तब प्रारमा की स्थायो शान्ति को सुक्षत रखने का मोर ही उमका झुकाव हो जाता Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। तब दुष्ट पुरुष या हिंसक पशु पानि भाकर शान्ति भा करने की चेष्टा करते हैं, तो यह मानी प्रास्मा मानना है कि प्रशानी की चेष्टा मटा प्रज्ञान से भी होती है। उनकी चाबों से यदि ज्ञानी बास्मा विचलित होने लग जाय, नो प्रारममापन कैसे करेगा। ये जीव जब अपने दश सभा को नही छोरन. तप अपने क्षमा ५ अात्म स्वभाव मां न मने आत्मबल से इन दुनों के उपदम को मह लि. ना मेरे मं जो इस ममय इनके निमित्त से पाय में आप कुफान देकर मुझे अपने ज्ञान रूप से अप करना चाहते हैं. योन क्षमा-भाव में अपने स्वभाव को मुरक्षित रकम् . जिसमें नवान पान न हो। जो अनन्त ममार का काम है। २- उत्तम मार्दव मान महाविप रूप, काहनीन गान जगन में। कोमल मुधा अनुप, मम्ब पावे पानी महा ।। यह प्राम-पस्यांग मा हनियाले जान, पृा. कुल. जानि, बल, द्धि, नप, शगरहन पाट, कारणों का पाकर महा. मनहा जाता है। उम ममय बा. यानी माचना किये शगंगदि मेरे इमी पर्याक माथ नष्ट होनेवाल है, महाके माया नही हैं । इमलिये इनक क्षणिक माह में प्राकर अभिमान क्यों कर: क्योंकि अभिमान जय होना है. नए प्रामा का विवेक नष्ट हो जाता है और विवेक के अभाव में उमका सान विकर हो जाता है और माहेब धर्म का काम नमे विकृत होने नहीं Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-उसम भाव कपट न कांजे कोय, चारन के पुर ना बम । मरल स्वभावी हाय, ताक घर बहु सम्पदा ।। मन, बचन, काय. इन तीनों योगों में कुटिलता का न पाना पाय है। यह प्रामा मामारिक माय -ममग के वश में नाना प्रकार के कपट जाल रचका दमरों को सम्पत्ति वगैरह हरण करने की चेष्टा करता है और उसकी चिन्ना में मदा नन्मय रहना है, जिममे श्राम स्वभाव का जन में नहीं रहता । इमी में यथाना प्रार्जव धर्म ।। काम है। कयोंकि अम्मा का प्रभाव मरल ज्ञानमय है अन कुटिलत -माल कपट उममें महा दूर पहने ही 7 । भव बन्धन छुट माना है। ४-उत्तम शांव धरि हिग्दै मन्नोप, करह, नपस्या देर मों। शांच मदा निदाप, धाम बड़ी समार में ।। प्रा.मा में मन्न"प एक महान गुग्ग है, जिनमें यह ज व लाभानगय के क्षया. में "न टन्द्रिा के मार्ग में मनाय अपने बाप को विकास नही हा देना और लाभ का काम परम भमन्नाप पंदा करना है. जिसमें दानी होकर या जाव नाना अनों अंर बोटे गमों का है. जिम में उसे कभी शान्ति नहीं मिलना और शौच धर्म क' काम अशान्ति म बचाना है इलिये यह जीव शौच धर्म की रक्षार्थ बहिरम शांच-स्नानादि फिर शुद्धि और अन्तरग शुदि गाई पाटि मलिन भावों में अपनी पामशुद्धि को करना है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-उत्तम सत्य कठिन वचन पति बोल, परनिदा पर भूलना। सोच नबाहर खोल, सनवादी मग में मुखी ।। जब भागमा रगद पनि भावों को प्राप्मा से भिम समझता है और मामा का भी जाना है नब बा अपने मत्यांश को महा मक्षिन मने की नंगा करना है। इसीलिये न तो कीमिया गया। तीन अमाय बचन बोलकर या दमों की निन्दा वग: का अप. प्रात्मा का या पर को कर देने को कचा कर है। क्योंकि इमप्रकार के मियाचरण में उसका मग विज्ञान लि. नीहान पाना । ६-उत्तम मंयम काय हो पनिपाल, पचन्दा मन पम कगं । मधम रतन मभाल, विषय चार पर फिग्न । तिम बहार या भाचार में अपन की या पर प्राणी को कप पर ।। पचयामा क्रिया में मन और इन्दिनना मयम धम । पचन्द्रियों के विपयों में मन ... मानना इन्द्रिय मयम है। पांच लायर नन्न । या क.' • If .ना प्राण मयम है। विषय पनि क मा श्री. 4 पा-कोच, मान, माया, मोभ, मद, मत्सव्यं यं मा के यार। कयाकि इनक, मयोग से प्रारमा यहकने लगता है. नः इनका निग्रह करना ही मंयम है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) ७-उत्तम तप नप चाहें मग्गय, करम शिस्तर को बन है। द्वादविधि मुम्बदाय, क्यों न कर निन सकति सम ।। प्रात्मा का स्वभाव अनादि में झानावग्ग। आदि कर्मों में अत्यन्त मलीनहाना रहता है। उम मलीनता को दूर करने के लिये नप करना अत्यावश्यक है । जैसे मुवर्ण पापारण में-म बिना नपाप माना अलग नहीं होना. उमी नगह कर्म मल भी बिना तपस्या के अलग नहीं हाने । इमलिय अनशनादि बहिरङ्ग तप और स्वाध्याय श्रादि अन्ना नप में उपयाग स्थिर करना मपधर्म है। ८-उत्तम न्याग दान चार परकार, चार संघ को दीजिये । धन विजुरी उनहार, नरभव लाहो लीजिये। प्रात्मभाव को कलुपित करनेवाले गगादिभावों का त्याग करना और गगादि बढ़ानेवाले प्रत्यादि को उत्तम पात्र-माधः संत, मध्यम प.त्र-सत्यनिझानी और नैष्ठिका चार पालक, जघन्य पात्र-मस्य विधामी एवं परम निवेकवान. इनके अलावा दीन, दुखो गेगी. अज्ञानी प्राटि पुरुषों की अाहार, प्रोधि ज्ञानादि देना नया शापागनों को अभयदान देना ध्यागधर्म है। ९-उत्तम माकिंचन परिगा चाथिम भेट, न्याग करें मुनिराज जी । त्रिमना भाव उछंद, घटती जान घटाये ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिम पदार्थों के मंग्रह और रजाति में निम्न्ता मारमा चिरिया गाकुल हो जाती है, से श्री. धन-धान्य, दासी. दाम मादि बहिण परिमा का माया या मांशिक त्याग को प्राविधन्य धम कहते है। क्योंकि वास्तविक निगल अवस्था परिग्रह त्याग से ही होती है १०-उत्तम बनवार्य शीलवार ना गम, प्राप्रभाग अनर लम्बी। करि दोनों अधिनाम्बकरहमफन नाभन महा।। मन, वचन, काया में श्री मात्र का त्याग करना पूर्ण प्रापयं है। अथवा मन, वचन, कागा म पानी स्याग और अपनी विवाहित ममें मन्नोपना देश ब्रह्मचय है। दिगो की पमानना श्रीर मन को पटना का प्रभान कारण निक ('नाम कमि. )। काम सामना एक.मी भयानक गासना है कि उमा भाचन माघ मन्न, नस्वी प्रामादि महा. पर भी ना के कप में माना जात है. उम ममय माम जान पर क नगर जाता है। उस ममय य विचार प्रारमा में नहीं ना कि जिस नभर भर में प्रामन उसका कम्प क्या है और उसका भारमा माय क्या भेटी पर मंच कान ? म ममय ती कर्गनिया के मशुचि नन में. काम गंगारनि करें। बह मृतक महिमसान, माही काफ ज्यों चीन भरे ।। इम नगह के निरा शरीर में किमी नाह की प्रामकि का न का ब्रह्मचर्य है । प्रथमा उन वामनानी म गहिन होकर माम Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) भाग से लीन हाना ब्रह्मचर्य है। ये हो दश धर्म प्रास्मा के हाभाग हैं। मिन कौन है ? इसीलिये जिन बनने को जितेन्द्र।, मंयमी और परम शान्त होने की आवश्यकता है। जिन्होंने अपने ज्ञान, वैगग्य और त्याग से आत्म स्वरूप को पा लिया, वही जिन कहाने लगे और उन्होंने कर्मों का जोतने का अनुभून माग बताया, वहा जिन धर्म के नाम में प्रसिद्ध हुआ जिन किमा व्यनि विशेष का नाम नहीं . जो प्रान्मा अपना पूर्ण विकाम कर लेगा, वहीं जिन बन जायगा । जैन धर्मानुमार वही भगवान है और वहा परमात्मा है। परमात्मा बनने के पहले पाच अवस्थाए जंव : दाता। पंचपरमेष्ठी -माधु-समार क माया, ममना पार पा-मसाधन में जुट जानेवाले महापुरुष को माध करने । -उपाध्याय-मंयमी जीवन में नच्चों का मनन कानाकराना, ध्यान का अभ्याम करना-काना, मगम का प्रस पालन करना और ननका ज्ञान माधों को काना ३-प्राचार्य-मयमी हाकर माधु मंघ में मयम को मर्यादा सुरक्षित रखना. मघ के मधओं के प्राचरण में प्रापनित दोषों का निगकारण करना एवं मघ को पूर्ण मयम पालक बनाना। -अरहंत या जिन-पृण ज्ञान का विकास हो जाने से मवज्ञ-मनदर्शी अन्मा का निज स्वभाव प्रकट हा जाना है। तब ससार के पदार्थ उनके अमज्ञान में प्रतिविम्बिन हो जाते हैं और उनका प्रतिगदन अरहन्त के द्वाग सभावनया हाने लगता है, जिससे ममार के जीव तत्त्वज्ञान का रहस्य जान जाते Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जब तक शरीर का सम्बन्ध रहता है. तब तक वे जीवनमुक कहलाते हैं। ५-जब शरीर का मम्बन्ध छुट जाना है, नब मिद-हो जाते है। सिद्ध होने बाद के उनका ममार ने कोई सम्बन्ध नहीं रहता रमोनिये उन्हें मुक्त कहते है। अरहन और मिद्धही न कहलाते हैं जैनधर्म मुक्त नवा संमार में फिर से वापिम लोटना नहीं मानते। ग्योंकि, मंमार में परिभ्रमण करनेवाला कर्म-पटल मिडों को कभी नहीं नया मकना । वह कर्मों से सर्वादा मुक है। जिन की उपासना अब यह होता है कि जन-धम जय कि जिन को गगढ़ प हत वानगन और मा मानना है और यह मी मानना है कि हमारी उपासना में प्रमत्र होकर वे हमको दयार कुछ नहीं देने । न देने ले का उनका स्वभाव ही है, नय उनका उपामना या पूजा. भफि. नवन अदि क्या किया जाता है ? इमका उत्तर एक प्रधान महपि ने इमप्रकार दिया है: न स्नेहाच्छरगां प्रयान्नि भगवन् पादद्वयं ते मना । हेतुस्नत्र विचित्र वाग्वनिचयः संमार घोरागावः ।। अत्यन्न स्फुर दुग्रश्मि निकरः व्याकीण भूमंडलः । ग्रकः काग् यतीन्द पाद मलिल छायानुराग रविः ॥ -दशभक्तिः है भगवान मंमार के जाव अापके चरणों में न तो किसी ह से प्राते हैं और न किमी दबाव सही। दरबमल उनके श्राने का कारण यह है कि मंमार के गंग-शाक. प्राधि-व्याधि Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) में जब वे सताए जाते हैं और संमार में जब उन्हें कहीं शांनि नहीं मिलनी, नभी आपके पास दौड़े चले पाते हैं. जैसे ग्रीष्मकाल क प्रचण्ड मयं-किग्गग के ताप से मताए प्राणी चन्द्रमा की शीतल किरणों में नौई चले जाते हैं। अब आप सोचें चन्द्रमा उन्हें क्या दे देता है। किन्तु चन्द्र के आश्रय में पहुँच कर जिम प्रकार उन्हें शान्ति मिलती है. उमी प्रकार आपके चरणों में उन्हें भारी शान्ति मिलती है। क्योंकि चन्द्रमा की तरह प्रापको स्वाभाविक मुद्रा भी शान्तिमय किरणों से व्याप्त है। वहां मांसारिक आधि व्याधि अपना प्रभाव नहीं दिखा सकती। इसलिये जब तक आप जीवन्मुक्त अवस्था में विराजमान रहे, नब तक तो ममार-दावानल नप्त प्राणियों ने माक्षात् श्रापका आश्रय लिया और जब आपका काल दोप में प्राश्रय न मिला, नब श्रापकी प्रतिमा का प्राश्रय लेने लगे । यही आशय जैनियों की प्रतिमा पृजन का है कि जैन धर्म निमृतिपरक त्याग को मुख्यता प्रात्मधर्म का प्राप्ति में मानना है । इमलिये उमका आदर्श उत्कृष्ट त्यागमय होना चाहिये । इसलिय जैन धर्म ने अपने जिन देव का स्वरूप निर्विकार मन् चिन श्रानन्दमय निलेप माना है। अपरिग्रह घाट जैनियों का मुन्य सिद्धान्न है। क्योंकि परिग्रह, माया, ममता का प्रधान कारण है । वीतराग से माया-ममता का लेश भी नहीं रहता इसलिये जोवन्मुक्न अवस्था मे जिम पकार परभ शान्त मांमारिक वामनामों से सर्वथा परे निलेप उनको रूपरंग्या होती है, उसी तरह प्राज उनकी पनिमा बनाकर पूजा के यंग्य मानी जाती है । क्योंकि हमको मांसारिक झंझटों स दूर होना है, इमलिय हमाग आदर्श भी वही होना चाहिये । जो रूप हमको परम शान्त और अमिट सुख का केन्द्र बनाने में साधक नप हो। इवी गर्ज में हमारी Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) पूजा त्यागमय होती है। हम पृजन की पत्यक सामग्री को 'निपामि त्याग करते है । इस भावना में देख के मामने रखते हैं और उसमें पुन श्रामक्ति न हो. यह माना हलय में अनि करने हैं, जिमसं हमाग अनादि कालीन मोहन्यक्त पदार्थो में पुन जागरक न हो । यही हमारी पूजा का पधान लक्ष है। सभी तीर्थङ्कगे की प्रतिमा एक-मी क्यों होती है ? प्रत्येक बानी अामा ने पग्म शान अबस्था धारण कर श्राम विनाम पाया है। क्योंकि कर्म पट बिना वीनगगता निष्प्रहिना और परम शान्त अवस्था प्राप्त किए बिना प्रारमा से दूर नहीं हो सकता । जय नक पूर्ण क्षमता प्राप्त न हो जावे, कोई आत्मा जीवन्मुना नहीं माना, न प्रान्ता लि. बन मकता है, नब जिन प्रावस्था जिम मुद्रा म पात हानी है. वही जिन लिग है और जिन लिग-जिन का बंप विन्याम हर समय हर काल और देश में एक मा ही होगा अन्यथा या अन्य प्रकार नहीं हो म्कना। टमालय जिन प्रतिमाप महा एक-मी होती हैं. जिम पृतनवाला या तिनन्द प्राप्त करने की चटा करनेवाली - मामन यह होर जिममे वे अपने चरम लक्ष्य को पान कर मः ! जन-धर्म का प्राध स्थापक कौन है ? जबकि आप अामा श्रादि में कर्म-जाल के चक्कर में पड़कर नान पकार के वाम पा रही है, तब यह प्रश्र स्वयं ही हल हो जाता है कि प्रापर्क' श्रान्मा में अनादि से ही चेतना-जानने और दंग्वने का नातन थ', पर वह बाहरी कारण कमाया म विकार-यात. पर आपका नगन्य स्वभाव अनादि Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है उसे किमो ने बनाया नहीं। ईश्वर की तरह प्रात्मा भो अनादि है और जब आत्मा अनादि है, तो उसका धर्म आदि कैसे हो मकता है । क्योंकि प्रात्मा धर्मी है और चेतन्य उमका धर्म है। जैम अग्नि धर्मी है और उष्णता उसका धर्म है। अग्नि में उष्णता कब किमने लाकर दा ? चाँदी में श्वेत रूप किसने भर दिया, जिस तरह उजेला या प्रकाश अनादि है, उसी प्रकार अन्धकार मी अनादि है। इसी प्रकार संसार में जितने पदार्थ आप देख रहे हैं. वे और उनमें रहनेवाले मभी गुण या धर्म भी अनादि स हैं। हाँ, यह बात ना अवश्य है कि जिन दव्यों में में जो-जो गुणधम हैं, उनका ज्ञान मभी मनुष्यों का प्राणियों को नहीं होना । इमलिये उन गुणधर्म के जानकार उन द्रव्यो का स्वरूप उम विषय के अजानकारों को समझाते हैं। पर इमका यह मतलब कभी नहीं होता कि उम विशंपन्न ने उन पदार्थों में गुण धर्म पटा कर दिया है। क्योंकि मभी द्रव्य और गुणधर्म अनादि हैं और अनादि में ही इनके जानकार संमार में मौज़द हैं। इमलिये यह कैम माना जाय कि जैनधर्म का प्राय स्थापक अमुक महपि था महात्मा है । जबकि जैन धर्म श्राम धर्म है, जिमका स्पष्ट अथ होना है वस्तुओं में रहनेवाले गुण-धर्मों का ज्ञान कराने वाला धम', नब यह बात निस्मन्दह मिद्ध हो जाती है कि इस धर्म का प्राय पूकाशक भी अनादि कालीन है, पर स्थापक कोई नहीं है। हाँ, यह बात ना अवश्य है कि ममय-समय पर जिन आपामाओं ने अपना पूर्ण विकास कर लिया और मर्वज्ञता पाकर जिन या अरहन्त हो गए, वे हो अपने समय के पकाशक कहलाए अर्थात् उन्होंने जैन-धर्म का अनादि सिद्धान्त दुनिया के सामने रक्खा। इस तरह के महापुरुषों में जो विशेष प्रतिभा सम्पन्न हुए वे तीर्थ कहलाये । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) इस तरह के २४ तीर्थकुर इस जमाने में और सबसे अन्तिम हुए तीर्थकुर श्रीमहावीर स्वामी हुए हैं और चतुथ युग के आरम्भ में श्राम तीर्थकु श्रोऋषभनाथजी हुए हैं । जैन संस्कृति क्या है ? यही प्रश्न अत्यन्त महत्व का है, जिसपर गंभीरता से विचार करना चाहिए संस्कृति संस्कार को कहते हैं। संस्कार से हो जीवन बनना - बिगड़ता है । इसलिये भारत के सभी धर्मों ने अपने-अपने दृष्टिकोण को महं नज़र रखकर अपनी-अपनी संस्कृति सृजन परिवर्द्धन और प्रचार की रूपरेखा का जीताजागना चित्र बचा है। क्योकि प्रत्येक धर्म का प्रचार उसकी संस्कृति की महमीयता पर निर्भर है। जैन धर्म ने अपनी संस्कृति के रेखाचित्र बनाने के पूर्व तैयार किया और · बाद उसपर अपना कशा बनाया। यही कारगा है कि अनादि काल से तक हजारो विरंध हमलों को सहकर भी अपना नकशा धूमिल भी न होने दिया, क्योंकि जैन-धर्म' की भूमिका इतनी थी कि उसपर से नकशा मिटाया न जा सका । ' जैन धर्म ने आत्म-विकाम करनेवालों को हिंसा, झूठ, चांग, कुशील. परिग्रह इन पाच पापों से बचाया है, जिनसे मानव समान का व्यवहार सम्योचित नहीं रहना तथा सम्योचित गुणों का मानव मे विक्राम नहीं होने पाना । एां मद्य-शराव, मध शहद, मांस दो इन्द्रियों से ( के शरीर ) लेकर पंचेन्द्रियों के शरीर को त्याग करने की व्यवस्था नहीं है, जिससे मानव समाज में मान्त्रिक गुण का पूर्ण विकास हो सके। यही कारण है कि जैन धर्म अहिसा पृधानी धर्म आज भी संसार के धर्मो में गिना जाता है। श्री लोकमान्य बालगंगाधर तिलक महोदय Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने यहाटा में अपने भाषण में कहा था कि "मबसे पथम अहिंसा का पाठ जैन धर्म ने ही भारत को पढ़ाया था। यहाँ तक कि बेटों पर भी जैनधर्म की अहिंसा की छाप पड़ी थी।" विश्वनिर्माण में जन-संस्कृति से क्या सहायता मिल सकती है? जैन धर्म चुकि प्रत्येक प्रात्मा के चरम मीमा के विकाम का मिट्टान्ततः मानना है। अतः अग्विन विश्व के प्रणा -त्येक आत्मा के मित्र हैं और मिद्धान्त की दृष्टि से अग्विल विश्व के प्राणा जैन-धर्म क सिद्धान्त पालन के अधिक गे हैं । अतः नब गाय हमारा बन्धुत्व का नाता वर्गक टाक बन सकता है। क्योंकि जैनम छोटे-छोटे प्रागा का नष्ट ने या दुःख पहुँचान की प्राज्ञा नहीं देना । नब हमाग विश्व में कोई शत्र नहीं रह जाता। हमारी संस्कृति हमका मध्य नागरिक बनानी है । अतः हम ममार व किमा भी प्राणी का मन ए बिना अपना व्यवहार निवाच कर माते । यह! कारण है कि "५. वष के इङ्गलिश गयकान में पुलिस या कारागाही को रिपार्ट में आप जैन मुलजिमो की संख्या नाम मात्र काही पावेंगे। क्योकि जैन लोन पाट पापो में नो मिहान्तन' बचने की जी भर चेष्टा जन्म से ही करते हैं । इमलिये उनमें ममान को अच्छे व्यापारी, धनाढ्य और दावहार कुशन प्राप्र हाने । कारागार में जाने योग्य अपराध स्वाभाविक मस्कृति में हा नहीं बन पड़ने और यही कारण है कि हम जनो में दृमी एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आज तक क डानहाम म कई यह नहीं साबन कर मकता कि जैन-धर्म के प्रचार में कभी ननवार Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या अभ्य शस्त्र से काम लिया गया हो या बलपूर्वक किसी दीन या ममर्ग को जैन बनाया गया हो; क्योंकि जैन धर्म का प्रधान मा हिमा है। अहिमा का स्वरूप यनवलु कवाय योगात् प्राणानां द्रव्य भाव रूपाणाम् । व्यपगेपणम्य करणां मुनिश्चिता भयति मा हिंसा ।। -पु० सि० श्री अमृतचन्द्र मूरि क्रोध, मान, माया, लोभादि कपायों से या मोहादि मे मन, वचन. काया में जो चञ्चलना प्राती है, उससे अपने या दूसरे नागियों के द्रव्य प्रागों का या भाव प्राणों का घान करना, या घात करने का इरादा करना नित्रय महिमा है काग-'च इन्द्रिय -पव-मना ३-घ्राण '-चन ५-यात्र-मानयल 5-मनायल ७-बचनबल - काययन . स्वामीन्छवाम :-प्राय:-ये दश है। भान गि-नमन् श्रावण कर्म के नायशमादि मे जोष में विपन का व्यवहार हा उसे भावप्राण कहते हैं। अमादुर्भावः ग्वनु गगादीनां भवन्याहमति । नेवापेवाप्पत्निाहिसेनि जिनागमस्य मंक्षेपः ॥ ___-पु० मि. श्री अमृतचन्द्र पनि अमनी बान ना यह है कि प्रारमा में अपने या दसरे को मनाने के लिये गगढ प न होना ही अहिंसा है और गंगष Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) होना ही हिंसा है। यही जैनधर्म की हिंसा या अहिंसा की स्पष्ट परिभाषा या स्परेग्या है। चाहे जीव मरें या न मरें यदि मारने के परिणाम हो गये, नो गगद्वेष की सत्ता होने आत्म परिगामों में विचार आ ही गया। इसलिये हिंसा से बच नहीं मकते और यदि परिणामों में कोई विचार नहीं हुआ और मागे चलते ग किसी चीज को सावधानी से धरते-उठाते जीव बध भी हो जावे तो गगद्वेष भावों के प्रभाव से हिंसा नहीं होगी। __ जैन-धम ने निचारधाग को दूपित न होने को ही प्रारमप्रतिमा माना है। विचारों में कलुपता आने से ही स्वरूप च्युत आत्मा हो जाता है और नभी वह बहकने लगता है। अतः नानाप्रकार के अनर्थो की ओर उमका झुकाव हो जाता है। नभी हिमादि पच पाप या तीन मकार-मद्य, मांस. मधु का सेवनकर सांसारिक विषय-वासना में उलझ जाता है और यही उसके ससारबन्धन का कारण है। अतः एक मनीषी विद्वान ने कहा है कि: भावी हि पुण्याय मतः शुभः पापाय चाशुभः । तहश्यन्तं ततो रक्षेत् धरिः समय भक्तितः ॥ अर्थात् श्रान्मा के परिणाम-विचारधाग पुण्य-पाप के कारण हैं । अतः संचंता प्रागी को मदा अपने विचारधारा को पवित्र बनाए रखने की चेष्टा करना चाहिए । इस कथन का स्पष्ट प्राशय यह है कि जब नक भावहिंसाविचारों में अपने या दूसरों के मताने या मारने का अभिप्राय न होगा। हम द्रव्यहिंसा-किसी का या अपना घात नहीं कर सकते ओर विचारधारा दूषित होने का नाम ही रागद्वेष या Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद है और "प्रमतयोगात प्राण व्यपरोपणं हिंसा"-उमारपरमि प्रमाद के योग से प्राणीमात्र को कष्ट देना हिंसा है। मात्मा और परमात्मा की परिभाषा प्रात्मा-जिसका ज्ञान दर्शन स्वभाव हो, आदि अन्त रहित हो, अमूर्ति-रूप रस, गंध, स्पर्श रहित हो और उपाद व्यय धोव्य युक्त. अस्तित्व वस्तुस्वादि अनन्त धर्मो का स्वामी हो, उसे जीव या प्रात्मा कहते हैं। किन्तु अनादि काल से जीव के साथ जडस्वभाव पुद्गल-अचेतन द्रव्य का सम्बन्ध है। इसलिये उनके निजरूप के विकास में ऐमा अन्तर पा गया है कि सामान्य मानवाले मानव-समाज को उसकी अमलियत का पता नहीं चलता कि जीव केपा है। और उमको कैसे पहिचाना जाय । इसलिये जैन दर्शनकारों ने उसके स्वरूप का ज्ञान कगने के लिये उसे तीन भागों में विभक्त कर उनके लक्षणों का अलग-अलग निरूपण किया है । यथा-बहिगत्मा, अन्नगत्मा, परमात्मा। बहिरामा- देह जीव को एक गिने, बहिगमा तत्त्व मुध। हैं जो शरीर के उत्पन्न होने पर अपनी उत्पत्ति और शरीर के नाश होने पर अपना मरण मानता है. उसे बहिरामा कहते हैं। अनादि काल से कर्मा ने इस प्रात्मा पर अपना ऐमा प्रभाव जमा लिया है कि वह यह जग भी नहीं जान पाता कि मेरा असली रूप मान दर्शनमय है, में अमृत है, कम जड़ है और इनकी नाना प्रकार की मूर्तियाँ, पशु, पक्षा, वृक्षादि रूप हम देखते हैं। ये उत्पन्न हो-होकर नष्ट होती रहती हैं, पर प्रारमा एक मकान से दूसरे मकान की तरह नानाप्रकार के शरीरों को बदलता रहता है। मकान के नष्ट हो जाने पर हमारा नाश जिस तरह नहीं होता, उसी तरह शरीर के नाश होने पर हमारा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) नाग नहीं होता । किन्तु जैसे एक ही आत्मा बालक से युव और वृद्ध पर्यायें धारण करता है, उसी तरह मनुष्य शरीर से देव शरीर को भी बदल लेता है और यही आत्मा अनादि काल मे करता चला आया है। इस विज्ञान को जा नहीं समझते, वह गत्मा है और वे अपने स्वरूप के भूल जाने से जड़स्वभाववाले माटा, पत्थर आदि खनिज पदार्थों को धन मानकर और पुत्रादि जोकि हमारे एक पर्याय के साथी हैं उनको अपन मानते हैं और उनके संयोग-वियोग में हर्ष विशाद करते हैं। इसलिये उसका ज्ञान बहक जाता है और उसी अज्ञान भाव वह संसार की माया, ममता में लीन रहते हैं । अन्तरात्मा - जिन्होंने अपने स्वरूप को समझ लिया ह श्रर जड़-शरीरादि को अपने आत्मा स्वभाव से भिन्न अनुभव कर लिया हो, वे अन्तगत्मा हैं, उनके उत्तम अन्नगरमा मध्यम अन्तरमा जघन्य अन्तरात्मा-य तीन भेद है। उत्तम अन्तरात्मा - द्विविध संगविन शुन उपयोगी मुनि उत्तम निज ध्यानी- अन्तरंग परिग्रह - ममता राईप से पर पदार्थों का अपना मानना - बहिरंग परिग्रह - धन, धन्य हार्स दास आदि के संयोग-वियोग में या शिष्यादि के संयोग-विशेष ने हर्प विषाद मानना इन दोनो तरह के परिग्रह से रहि शुद्ध आत्मा के उपयोग में निरन्तर मग्न रहनेवाले और आरम ध्यान से कर्मों का नष्ट करनेवाले गुनि-महर्षि उत्तम अन्तगन्म हैं । मध्यमनगरमा - "मध्यम अन्तर आत्मा हूँ जे देशवृन आगारी" अहिमादि पांच पापो को आंशिक पालने वाले, मद्य, मांस, मदिरा के त्यागी और आँच इन्द्रिय और म को अपने Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश में करने के लिये नैधिक भावक के हतों को पूर्ण श्रद्धा से ज्ञानपूर्वक प्रापरण करनेवाले मध्यम अन्तरामा हैं। इनकी पारमा में भारमा का अनुभव तो हो ही जाता है पर अपनी मनानि कालोन पादत से लाचार होकर प्रात्मा के शुद्ध अनुभव करने में असमर्थ है, एवं दोनों प्रकार के परिप्रहों को सर्वथा बोरने में भी असमर्थ है, इसलिये गृहस्थ जीवन में रहकर जितना से सकता है, कम परिग्रह रखते हैं और पंचेन्द्रियों के विषयों की, अपने माने-जानेवाले क्षेत्र की, धन-धान्य, दाम-दामी मादि की अपनी सुविधानुसार मर्यादा कर लेते हैं और धीरेधारे अपनी शक्ति को बढ़ाकर अपने संयम को बढ़ाते चले जाते है। अपने उपयोग और पाचार को खराब नहीं होने देते। इम तरह अपनी इन्द्रियादि के निग्रह से पाम स्वरूप को विका मित कर कर्मों के रद बन्धन को ढीला करने का मतत प्रयास करते हैं। जघन्य अन्तरात्मा-"अपन कहे अविरत समष्टि, तीनों शिव मग पारी"-जिनकी पारमा ने अपने स्वरुप का अनुभव नो पर लिया है पर अनादि-कालीन धर्म के प्रभाव से साधारण प्राचार पालने में भी असमर्थ हैं। वे जीव यह तो पूर्णतया जानते हैं कि जब तक में अपनी इन्द्रियों और मन को मामारिक विषयों से न हटाउंगा. तब तक मुझे वास्तविक शान्ति न मिलगी और उनी यही सपा विश्वास है पर वे मोहनीय जामा कम के दबाव में भाकर यूनादि करने में सबंधा अममर्थ हैं। इलिये ही उनका नाम जघन्य अन्तरात्मा या अविरत सम्यग्रटो है। ये तीनों-उत्तम, मध्यम, जपन्यअन्नगामा मोक्ष मार्ग में लगे हुए हैं। क्योंकि मनको मारमा असली रूप का अनुभव हो गया है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा-जिनकी मात्मा में शान. दर्शन, स्वभाव का पूर्ण विकास हो गया हो और संसार के चर-अचर पदार्थ स्पष्ट दीखने लगे हों, एवं जिनका शान, दर्शन, मुख, बल, अनन्त हो गया हो. वे परमात्मा है। उनमें जो शरीर के आश्रय रहकर संसारी आरमानों को पदार्थों में रहनेवाले गुणधर्मों का व्याख्यान करनेवाले जीवन्मुक्त या सकल परमात्मा भगवान् ऋषभदेव. गमचन्, हनुमान भादि इन्हीं को अरहन्त या जिन कहते हैं। और जो संसार से सम्बन्ध त्याग कर भौतिक शरीर को छोड़कर अपने सारूप में स्थिर हो लोक के अप्रभाग में जाकर स्थित हो गये हों, वे सिद्ध परमात्मा है। Printed ind published lwy Girja Shankar Miehtu (S. S. Mehra and Bros ; at the Mehtu Fine Art Press. Benar's Page #69 -------------------------------------------------------------------------- _