________________ (14) अनित्य होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु को न तो एकान निन्य ही है और न नो एकान्त अनित्य ही मानना चाहिए। अर्थात् नित्यानित्य मानना ही ध्यावाद या अनेकान्तवाद है। मी पर जैनाचार्य हरिभद्र सूरि का कथन है:मट म पस्य वस्तुनी व्यवस्थापिनत्वात् / सवेदनस्यापि च वस्तुन्वान तथा युक्ति मिद्धश्च / तथाहि संवेदनं पुरोऽव्यवस्थिन घटाढा नदमावेन ग भावाध्यवमाय रूप मेनोपजायते " न च सदसदप वस्तुति सन्मात्र मानभी स्वये तत्वत् स्तन पानभास्येव, मम्पूर्णाथा प्रतिभामनात् / नरसिंह-सिंह मंत्रदनवन / नचंत उभय पनि मामिन संवेद्यनं तदन्य विविक्तना विशिष्ट स्यैव मंवित्त / तदन्य विविक्तत्ता च भारः / ___ERका तात्पर्य यह है "मदमदप वस्तु का मल मदात्मक ज्ञान ही ममा ज्ञान नहीं है। कारण यह है कि वह उस वस्तु के पूर्ण अर्यको प्रकट नहीं कर मकना / जिम प्रकार कवल सिंह के मान-मात्र में नामिह का ज्ञान पूरा नहीं हो सकता / अतएव जैनदर्शन का मुग्य अङ्ग उमका स्याहाट बाला सिद्वान्त ही है। एक ही वस्न में विभिन्न देश, काल और अवस्था ओं की अपेक्षा में अनेक विरुद्ध या अविद्ध धर्मों की मम्भावना हो सकती है। अ-: एकान्न गति स अमुक वस्तु में हा अमुक धर्म है दूमग नही. मा कहना मिथ्या है। द्वाद यह वानुमात्र को पूर्णगति स पहिचानने का नाम है / इसका अनेकांनव द भी कान में आता है। इसक द्वग प्रत्येक मनु की परीक्षा काने पर वस्तु का माप यथार्थ कप में प्रकट हो जाता है। इस सिद्धान्त को जानने और पालन करने से जगत का बैर-पिराध शान्त हो सकता है।