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प्रमाद है और "प्रमतयोगात प्राण व्यपरोपणं हिंसा"-उमारपरमि प्रमाद के योग से प्राणीमात्र को कष्ट देना हिंसा है।
मात्मा और परमात्मा की परिभाषा प्रात्मा-जिसका ज्ञान दर्शन स्वभाव हो, आदि अन्त रहित हो, अमूर्ति-रूप रस, गंध, स्पर्श रहित हो और उपाद व्यय धोव्य युक्त. अस्तित्व वस्तुस्वादि अनन्त धर्मो का स्वामी हो, उसे जीव या प्रात्मा कहते हैं। किन्तु अनादि काल से जीव के साथ जडस्वभाव पुद्गल-अचेतन द्रव्य का सम्बन्ध है। इसलिये उनके निजरूप के विकास में ऐमा अन्तर पा गया है कि सामान्य मानवाले मानव-समाज को उसकी अमलियत का पता नहीं चलता कि जीव केपा है। और उमको कैसे पहिचाना जाय । इसलिये जैन दर्शनकारों ने उसके स्वरूप का ज्ञान कगने के लिये उसे तीन भागों में विभक्त कर उनके लक्षणों का अलग-अलग निरूपण किया है । यथा-बहिगत्मा, अन्नगत्मा, परमात्मा।
बहिरामा- देह जीव को एक गिने, बहिगमा तत्त्व मुध। हैं जो शरीर के उत्पन्न होने पर अपनी उत्पत्ति और शरीर के नाश होने पर अपना मरण मानता है. उसे बहिरामा कहते हैं।
अनादि काल से कर्मा ने इस प्रात्मा पर अपना ऐमा प्रभाव जमा लिया है कि वह यह जग भी नहीं जान पाता कि मेरा असली रूप मान दर्शनमय है, में अमृत है, कम जड़ है और इनकी नाना प्रकार की मूर्तियाँ, पशु, पक्षा, वृक्षादि रूप हम देखते हैं। ये उत्पन्न हो-होकर नष्ट होती रहती हैं, पर प्रारमा एक मकान से दूसरे मकान की तरह नानाप्रकार के शरीरों को बदलता रहता है। मकान के नष्ट हो जाने पर हमारा नाश जिस तरह नहीं होता, उसी तरह शरीर के नाश होने पर हमारा