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है। तब दुष्ट पुरुष या हिंसक पशु पानि भाकर शान्ति भा करने की चेष्टा करते हैं, तो यह मानी प्रास्मा मानना है कि प्रशानी की चेष्टा मटा प्रज्ञान से भी होती है। उनकी चाबों से यदि ज्ञानी बास्मा विचलित होने लग जाय, नो प्रारममापन कैसे करेगा। ये जीव जब अपने दश सभा को नही छोरन. तप अपने क्षमा ५ अात्म स्वभाव मां न मने आत्मबल से इन दुनों के उपदम को मह लि. ना मेरे
मं जो इस ममय इनके निमित्त से पाय में आप कुफान देकर मुझे अपने ज्ञान रूप से अप करना चाहते हैं. योन क्षमा-भाव में अपने स्वभाव को मुरक्षित रकम् . जिसमें नवान पान न हो। जो अनन्त ममार का काम है।
२- उत्तम मार्दव
मान महाविप रूप, काहनीन गान जगन में। कोमल मुधा अनुप, मम्ब पावे पानी महा ।। यह प्राम-पस्यांग मा हनियाले जान, पृा. कुल. जानि, बल, द्धि, नप, शगरहन पाट, कारणों का पाकर महा. मनहा जाता है। उम ममय बा. यानी माचना किये शगंगदि मेरे इमी पर्याक माथ नष्ट होनेवाल है, महाके माया नही हैं । इमलिये इनक क्षणिक माह में प्राकर अभिमान क्यों कर: क्योंकि अभिमान जय होना है. नए प्रामा का विवेक नष्ट हो जाता है और विवेक के अभाव में उमका सान विकर हो जाता है और माहेब धर्म का काम नमे विकृत होने नहीं