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________________ 'प्राचार्य-उपाध्याय-साधु य नीन पर हैं। ये तीनों ही ईश्वरत्व पद प्राप्ति के प्रधान माधक हैं। ये तोनों ही माधक प्रात्म धमप मम्यग शंन, मम्यग प्रान, मभ्यग चारित्र, मम्यग नप की माधना करते हैं । पथम पद में अरिहन्त को साकारी. मग परमा-मावस्था, कंवन जान, केवल दर्शन मंयुक्त साकार परमेश्वर का स्मरण किया जाना है। इसके बाद में निवारण पद को प्राप्त होने पर वही अगे. अनाहारी आदि विशिष्ट स्थिति मम्पन्न कंबल विशद्ध परमात्मज्योनि को ही मिद्ध पट कहते हैं। इमी को श्रर की निगकार अवस्या कहते है. इसके प्राग में क्रमशः माधक इन दनों महान की स्थितियों को प्राप्त कर लेते है। यहां मव जवमात्र के लिये मान प्राप्ति का पधान मार्ग जन-धम हममे देश, कुल. जानि श्रादि की आवश्यकता नहीं होती कवल प्राम्मा की विशिष्ट योग्यता ही उम माग की अधिकारिणी भी है। यही अादश जनधर्म की विशेषता है। हमपर-म मापय ममझ में भामरगा कि हम प्रधान नवकार मन्त्र में पर पदों के गुणों का मन ही माधकों को लन्यवान बनाना है। इम महामन्त्र व्यवस्था में भी विशिष्ट मिलान्न एव विशिष्ट श्राम ग्धिति का परिचय और विशिष्ट माधना का महत्य प्रदशिन किया गया है। इसमें भी जैन दशन * विशिष्टना सिद्ध होती है जाव मात्र क. कल्याण का प्रधान यह धर्म है इसोस जंवमात्र या शुभचिन्तक यह धर्म हुआ। इसकी आगधना ह में मनप्य-जन्म मार्थक 'ना है। प्रान्म विशुद क. लिय पत्यक जीवमात्र को इस पवित्र जैनधर्म का अवलम्बन लेन' चाहिए। इसकी शिक्षा ये है:
SR No.010470
Book TitleSankshipta Jain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaiya Bhagwandas
PublisherBhaiya Bhagwandas
Publication Year
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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