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पूजा त्यागमय होती है। हम पृजन की पत्यक सामग्री को 'निपामि त्याग करते है । इस भावना में देख के मामने रखते हैं और उसमें पुन श्रामक्ति न हो. यह माना हलय में अनि करने हैं, जिमसं हमाग अनादि कालीन मोहन्यक्त पदार्थो में पुन जागरक न हो । यही हमारी पूजा का पधान लक्ष है।
सभी तीर्थङ्कगे की प्रतिमा एक-मी क्यों होती है ?
प्रत्येक बानी अामा ने पग्म शान अबस्था धारण कर श्राम विनाम पाया है। क्योंकि कर्म पट बिना वीनगगता निष्प्रहिना और परम शान्त अवस्था प्राप्त किए बिना प्रारमा से दूर नहीं हो सकता । जय नक पूर्ण क्षमता प्राप्त न हो जावे, कोई
आत्मा जीवन्मुना नहीं माना, न प्रान्ता लि. बन मकता है, नब जिन प्रावस्था जिम मुद्रा म पात हानी है. वही जिन लिग है और जिन लिग-जिन का बंप विन्याम हर समय हर काल और देश में एक मा ही होगा अन्यथा या अन्य प्रकार नहीं हो म्कना। टमालय जिन प्रतिमाप महा एक-मी होती हैं. जिम पृतनवाला या तिनन्द प्राप्त करने की चटा करनेवाली - मामन यह होर जिममे वे अपने चरम लक्ष्य को पान कर मः !
जन-धर्म का प्राध स्थापक कौन है ? जबकि आप अामा श्रादि में कर्म-जाल के चक्कर में पड़कर नान पकार के वाम पा रही है, तब यह प्रश्र स्वयं ही हल हो जाता है कि प्रापर्क' श्रान्मा में अनादि से ही चेतना-जानने और दंग्वने का नातन थ', पर वह बाहरी कारण कमाया म विकार-यात. पर आपका नगन्य स्वभाव अनादि