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( ४८ ) में जब वे सताए जाते हैं और संमार में जब उन्हें कहीं शांनि नहीं मिलनी, नभी आपके पास दौड़े चले पाते हैं. जैसे ग्रीष्मकाल क प्रचण्ड मयं-किग्गग के ताप से मताए प्राणी चन्द्रमा की शीतल किरणों में नौई चले जाते हैं। अब आप सोचें चन्द्रमा उन्हें क्या दे देता है। किन्तु चन्द्र के आश्रय में पहुँच कर जिम प्रकार उन्हें शान्ति मिलती है. उमी प्रकार आपके चरणों में उन्हें भारी शान्ति मिलती है। क्योंकि चन्द्रमा की तरह प्रापको स्वाभाविक मुद्रा भी शान्तिमय किरणों से व्याप्त है। वहां मांसारिक आधि व्याधि अपना प्रभाव नहीं दिखा सकती। इसलिये जब तक आप जीवन्मुक्त अवस्था में विराजमान रहे, नब तक तो ममार-दावानल नप्त प्राणियों ने माक्षात् श्रापका
आश्रय लिया और जब आपका काल दोप में प्राश्रय न मिला, नब श्रापकी प्रतिमा का प्राश्रय लेने लगे । यही आशय जैनियों की प्रतिमा पृजन का है कि जैन धर्म निमृतिपरक त्याग को मुख्यता प्रात्मधर्म का प्राप्ति में मानना है । इमलिये उमका आदर्श उत्कृष्ट त्यागमय होना चाहिये । इसलिय जैन धर्म ने अपने जिन देव का स्वरूप निर्विकार मन् चिन श्रानन्दमय निलेप माना है। अपरिग्रह घाट जैनियों का मुन्य सिद्धान्न है। क्योंकि परिग्रह, माया, ममता का प्रधान कारण है । वीतराग से माया-ममता का लेश भी नहीं रहता इसलिये जोवन्मुक्न अवस्था मे जिम पकार परभ शान्त मांमारिक वामनामों से सर्वथा परे निलेप उनको रूपरंग्या होती है, उसी तरह प्राज उनकी पनिमा बनाकर पूजा के यंग्य मानी जाती है । क्योंकि हमको मांसारिक झंझटों स दूर होना है, इमलिय हमाग आदर्श भी वही होना चाहिये । जो रूप हमको परम शान्त और अमिट सुख का केन्द्र बनाने में साधक नप हो। इवी गर्ज में हमारी