Book Title: Sankshipta Jain Dharm Prakash
Author(s): Bhaiya Bhagwandas
Publisher: Bhaiya Bhagwandas

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Page 66
________________ ( ५६ ) नाग नहीं होता । किन्तु जैसे एक ही आत्मा बालक से युव और वृद्ध पर्यायें धारण करता है, उसी तरह मनुष्य शरीर से देव शरीर को भी बदल लेता है और यही आत्मा अनादि काल मे करता चला आया है। इस विज्ञान को जा नहीं समझते, वह गत्मा है और वे अपने स्वरूप के भूल जाने से जड़स्वभाववाले माटा, पत्थर आदि खनिज पदार्थों को धन मानकर और पुत्रादि जोकि हमारे एक पर्याय के साथी हैं उनको अपन मानते हैं और उनके संयोग-वियोग में हर्ष विशाद करते हैं। इसलिये उसका ज्ञान बहक जाता है और उसी अज्ञान भाव वह संसार की माया, ममता में लीन रहते हैं । अन्तरात्मा - जिन्होंने अपने स्वरूप को समझ लिया ह श्रर जड़-शरीरादि को अपने आत्मा स्वभाव से भिन्न अनुभव कर लिया हो, वे अन्तगत्मा हैं, उनके उत्तम अन्नगरमा मध्यम अन्तरमा जघन्य अन्तरात्मा-य तीन भेद है। उत्तम अन्तरात्मा - द्विविध संगविन शुन उपयोगी मुनि उत्तम निज ध्यानी- अन्तरंग परिग्रह - ममता राईप से पर पदार्थों का अपना मानना - बहिरंग परिग्रह - धन, धन्य हार्स दास आदि के संयोग-वियोग में या शिष्यादि के संयोग-विशेष ने हर्प विषाद मानना इन दोनो तरह के परिग्रह से रहि शुद्ध आत्मा के उपयोग में निरन्तर मग्न रहनेवाले और आरम ध्यान से कर्मों का नष्ट करनेवाले गुनि-महर्षि उत्तम अन्तगन्म हैं । मध्यमनगरमा - "मध्यम अन्तर आत्मा हूँ जे देशवृन आगारी" अहिमादि पांच पापो को आंशिक पालने वाले, मद्य, मांस, मदिरा के त्यागी और आँच इन्द्रिय और म को अपने

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