Book Title: Sankshipta Jain Dharm Prakash
Author(s): Bhaiya Bhagwandas
Publisher: Bhaiya Bhagwandas

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Page 50
________________ यह भी मानना है कि ममार की प्रत्येक प्रान्मा अपने ज्ञान का पृगं विकास का परमात्मा बन सकता है । इमरने जैन-धर्म जीवमात्र का ग्या-चित्र क मा ही बना है। भिन्न-भिन्न नहीं। मीलिये जन्धम का यह दावा है कि मंमार में यही एक ऐमा धर्म कि वह प्रान्मधर्म के नाम से पुकारा जा मकना है। किन्तु अनादि काल के अज्ञान में इस जीव ने अपने स्वरूप को न ममझा. इलिये जर अननन पदार्थों में अपनापन मान रहा है। कम-पटल, जो हम अपने पाप का ज्ञान होने में बाधक हैं. उनके द्वारा प्रात्र मुम्ब दुम्य में अपने को सुखी दुःखी अनुभव करना है। जिन प्रात्माओं ने इम कर्म मल को ममझ निया, व इमे दूर करने में लग गये और अपने स्वरूप का ज्ञान भी न्हें होने लगा। यही जैन धर्म का काम है । प्रामधर्म की स्याग्या करने ममय जैन-दशनकारों ने -उनम क्षमा :-उनम मार्दव ३-उनम प्रार्जव - आम शोच ५-- म मर ६-उस्म मंयम ७-उत्तम नप .-.ाम त्याग 1-नाम प्राकिंचन १०-उनम ब्रह्मचर्य । यदश धर्म प्रामा क स्वभावाप प्रतिपादन किए हैं। १- उत्तम क्षमा पोरें दुष्ट भनेक, गांध मार बहुविधि करे । धरिये समा विवेक, कोप न कीज पीतमा ॥ क्रोध उत्पन्न होने के कारण दुनों की गाली. नाइनादि के होने पर भी कोध का उत्पन्न न होना जमा है। क्योंकि पास्मा जब मध्याम ग्म में मग्न हो जाता है. तब प्रारमा की स्थायो शान्ति को सुक्षत रखने का मोर ही उमका झुकाव हो जाता

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