Book Title: Sankshipta Jain Dharm Prakash
Author(s): Bhaiya Bhagwandas
Publisher: Bhaiya Bhagwandas

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Page 23
________________ ( ३ ) यतस्ततः स्व द्रव्यक्षेत्रकाल भावरूपेण सद वर्तते, परद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण चासत् । ततश्च सखासच भवति । अन्यथा तदभाव-प्रसङ्गात् (घटादिरूपस्य वस्तुतोऽभावम. सङ्गात् ) इत्यादि। ___प्रत्येक वस्तु में उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश तीन गुण हुआ करते हैं। कोई भी वस्तु जब नष्ट हो जाती है, तो इससे यह कदापि न समझना चाहिए कि उसके मूल तब ही नष्ट हो गए । उत्पत्ति या विनाश नो स्थूल म्प का हुआ करता है। सूक्ष्म परिमाणु तो मदा स्थित रहते हैं। वे सूत्रम परिमागा अन्य वस्तुओं के माथ मिलकर नवीन वस्तु को जन्म दिया करते हैं। जैसे स्य की किरणों की गरमी में पानी नो मूम्ब जाया करता है। किन्तु इमस यह ममझ लेना कि पानी का ही एकटम प्रभाव हो गया, समझने वाले की भारी मूग्बंता है। पानी किमी. न किमी रूप मे अवश्य ही मौजूद रहता है। ऐमा जरूर संभव है कि उसका सन्म म्प हमको दिग्बाई न पड़े। यह अटल सिद्धान्त मानना या ममझना चाहिए कि ममार की कोई भी मूल वस्तु न ना नही होती है. श्रीर न नवीन ही पैदा हुश्रा करनी है। इन मृल तत्वों में जो नानाप्रकार के परिवर्तन आदि होते हुए जर पाते हैं, वही विन श तथा उत्पादन की सांसारिक किया है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि सारे पदार्थ ही त्पत्ति स्थिति तथा विनाश आदि नाना ही गुणोंवाले हैं। इन तीन गुणों में जो मूल व मदा-मवंदा स्थित रहमी है, जैनधर्म शास्त्र में से ही द्रव्य कहने में श्राता है, और जिनकी त्पत्ति और नाश होता है उसे पर्याय कहने हैं अर्थात् इन्य के मम्बन्ध से प्रत्येक पदार्थ निन्य और पर्याय के सम्बन्ध में

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