Book Title: Sankshipta Jain Dharm Prakash
Author(s): Bhaiya Bhagwandas
Publisher: Bhaiya Bhagwandas

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Page 16
________________ कभी देवो संपद् का हास नथा आसुरी संपद् का आधिक्य होने लगता है, तब प्रायः मभी उत्कृष्ट तत्वों का इसी प्रकार विकृत रूप हो जाया करता है। ऐसी स्थिति में जैन समाज फिर किस प्रकार उससे अमृता रह सकता है। जिस धर्म के अनुयायी इतने पराक्रमी, शूर वीर हो गए हैं और जिन्होंने देश को नथा गज्य को इतना समृद्ध आदि बनाया था, फिर. उमी धर्म के प्रचार से देश या पजा कायर तथा पतनोन्मुम्बी किसी भी प्रकार नहीं हो सकती, जो इसको ऐसा कहते हैं, वे हमारे धर्म के इम नव की पूरी जानकारी नहीं गम्यते । अहिमा का अर्थ समझने के लिये हिंसा शब्द का अर्थ मममना आवश्यक है । 'हिमा शब्द हननार्थक हिंसी' धातु पर से बना है। इससे किसी पाणी को मारने या सताने का भाव प्रकट होता है। भारतीय पुगतन ऋषि-मुनियों के मतानुमार 'हिमा शब्द का नापयं 'पाण वियोग-पयोजन व्यापार अर्थात् 'पाणी दुख साधन व्यापागे हिमा है। इसी बात को अपनी आम बोलचाल की भाषा में इसपकार कहा जा सकता है कि पाणी को पारण सं हिन करने के लिये अथवा पाणी को किमी प्रकार का कष्ट देने के लिये जो परत्न या कार्य किया जाता है उसे हिंसा कहते हैं. इसके विपरीत किसी भी प णी या जीव को दुग्व अथवा कट न पहुँचाने को अहिंमा कहते हैं । सब प्रकार से. मभी ममयो में. सभी प्राणियों के साथ मैत्रीपूर्णक ज्यवहार करने को अहिंमा कहते हैं। मात्मवत् सर्वभूतेषु मुखः दुखे पिया प्रिये । चिन्तयमात्मनोऽनिष्ट हिंसा मन्यस्य नाचरेत् ।। -जैनाचार्य श्री हेमचन्द्राचार्य

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