Book Title: Sankshipta Jain Dharm Prakash
Author(s): Bhaiya Bhagwandas
Publisher: Bhaiya Bhagwandas

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Page 14
________________ जैनधर्म और अहिंसा भगवान ऋषभदेव, भगवान पार्श्वनाथ तथा भगवान महापौर आदि हमारे पूज्य तीर्थङ्करों के उस महान सिद्धांत को हम अपने पाठकों के सम्मुग्य उपस्थित करना चाहते हैं, जिसे हम जैन-धर्म का प्राण कह सकते हैं। वह है अहिंसा । जैन-धर्म के सभी प्राचार-विचारों की नींव इसी अहिसा-तत्व पर ही निहित है। यों तो भारत के ब्राह्मण, बौद्ध आदि जितने भी धर्म हैं, सभी ने हिसा को सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा है। किन्तु इम तत्व के बारे में जितना विस्तृत, जितना मूक्ष्म और जितना गहन विवे. चन जैन धर्म में करने में आया है, उतना गहन विवेचन आदि भारतवर्ष के अन्य धर्मों के सिद्धान्तों में देखने या पढ़ने और अनुभव करने में नहीं पाता । जैन धर्म के प्रवर्तकों ने अहिंसातत्व को उमकी चरमावस्था तक पहुंचा दिया है । उन लोगों ने अहिमा-तन्व का विवेचन ही कंवल नहीं किया है, प्रत्युत उसे प्राचरण में लाकर व्यावहारिक रूप तक दे देने की कृपा की है। अन्य सभी धर्मों में वह केवल कायिक रूप बनकर ही समाप्त हो जाता है। किन्तु जैन धर्म में 'अहिसा-तत्व' उससे बहुन आगे वाचिक और मानसिक रूप होकर आत्मिक रूप तक चला जाना है। अन्य मभी धर्मों में अहिंसा की मर्यादा मनुष्य जाति तक ही समाप्त हा जाती हैं अथवा यदि आगे बढ़ी, तो पशु-पक्षियों के जगत में पहुंचकर समाप्त हो जाता है। किन्तु जैन धर्म की महिमा की कुछ भी मर्यादा नहीं है । हमारे इम धर्म की अहिंसा की मर्यादा में चराचर जीवों का समावेश हो

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