Book Title: Sankshipta Jain Dharm Prakash
Author(s): Bhaiya Bhagwandas
Publisher: Bhaiya Bhagwandas

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Page 13
________________ मनुष्य मुम्ब-प्राति के लिये, प्रात्र मुग्य की वृद्धि के लिये, दुःख को टालने या कम करने के लिये सदैव कर्म किया करता है। पर जिम मार्ग से वह कम करना है, या कर्म जिन-जिन माग मे पृग किया जाता है. वही सम्प्रदायों की दृष्टि से धर्म हैं। धर्म विज्ञान की दृष्टि से भी धर्म को पाख्या करना भी इष्ट जान पड़ता है। ऐतिहामिक काल में कोई भी व्यक्ति धम' बिहीन था, ऐमा प्रनीत नहीं होता। इममे यह जमर प्रमाणित हो जाता है कि धर्म मभी ममय में अावश्यक नया मुख्य प्रज के रूप में मनुष्यमात्र में म्बाकार करने में आया है। किन्तु अपने-अपने धर्म के लिये सर्वात ममझनेवाले लोग मभी युगों में और अब भी मौजद हैं किन्तु वही धर्म मवश्रेष्ट या मर्वोच गिना जाता है, जो कमीटी पर जब कमा जाय श्री श्रेष्ठ निकले। इस कार्य के लिये हमने मंमार नथा भारत के सुपमिद्ध विद्वानों के मतों को पुग्नक के अन्त में मंग्रहिन किए हैं, जिममे पाठक म्वयं ही ममझ लेंगे कि धर्म की दृष्टि में जैनधर्म किम श्रेणी का है। जयति रागादि दोपान इति निनः अर्थात् गग-ढेष का विजेता जिन कहलाना है और उमी को माननेवाला नब जैन हुआ। इसका तात्पर्य यह निकला कि जिस धर्म के मानने में गगद्वप पर विजय पान की जा मक वही जैन धर्म है।

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