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संघ सवाल के लिए वे धन-संग्रह करतो हैं और न केवल संघ-साधुओ पर, संघ के आचार्य पर भी अपना वर्चस्व रखती देखो जाती हैं ।
यह सर्वदा आगम विरुद्ध कार्य है। जैन साधुओ की पुरानो परम्परामें ऐसा एक भी उदाहरण नही है कि महिलाएं संघ-सचालन करतो हो धन संग्रह करतो हो और सघस्य साधुओके आहारके लिए चौकेकी व्यवस्था करतो हो ।
( ब ) इसी तृतीय प्रकाशमे अपरिग्रह महाव्रतका स्वरूप निर्देश करते हुए विद्वान लेखकने श्लोक संख्या ६३ से १०० तकके अर्थ में लिखा है कि
जो मनुष्य पहिले परिग्रहका त्यागकर निर्ग्रन्थताको स्वीकारकर पीछे किसी कार्य के व्याज ( बहाने ) से परिग्रहको स्वोकार करता है वह कूपसे निकलकर पुन: उसी कूपमे गिरनेके लिए उद्यत है ... | दिगम्बर मुद्राको धारणकर जो परिग्रहको स्वीकार करते हैं उनका नरक - निगोदमे जाना सुनिश्चित है । 'यदि निर्ग्रन्थ दोक्षा धारण करने को तुम्हारो सामथ्य नही है तो हे भव्योत्तम । तुम श्रद्धामात्र धारण कर संतुष्ट रहो ।
इस प्रकरणमे लेखकने वर्तमान जैन साधुओंमें शिबिलाचार की बढती हुई प्रवृत्ति पर दुःख प्रगट करते हुए उसके निषेध करने के लिए सम्बोधन किया है जो अति आवश्यक है ।
स्व० ब्र० गोकुल प्रसाद जो मेरे पिता थे । स्व० पं० गोपालदासजो बरैया के पास वे अध्ययनार्थं मोरेना गये थे । उनको एक नोटबुक मे गुरुजी द्वारा कथित कुछ गाथाएँ लिखो हैं । उनमें एक गाया इस प्रकार है
भरहे पंचम काले जिणमुद्दाधार होई सगंथो । तव यरणसोल णासोऽणायारो जाई सो गिरये ॥
अर्थात् - इस भरत क्षेत्रमे पञ्चमकालमे जिनमुद्रा ( निर्ग्रन्थमुद्रा ) धारणकर पुन. वह मुनि सग्रन्थ ( सपरिग्रह ) होगा वह अपने तपश्चरण और शोलका नाश करेगा तथा ऐसा अनगार (निर्ग्रन्थ ) नरकको प्राप्त करेगा ।
यह प्राचीन गाथा किसो प्राचीन ग्रन्थकी है । ग्रन्थका नाम उसमें नहीं है । विद्वान् लेखकका कथन इस आगम-गाथा के अनुसार सर्वथा संगत है।
सारे शिथिलाचार की जड़ परिग्रहकी स्वीकारता है और उसके मूलमे महिलाओ द्वारा संघ-संचालन भी एक जबरदस्त कारण है। इस