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आयिका क्षुल्कक-ऐलकका भो वर्णन है तथा म्यारहवें में सल्लेखना तथा बारहवें अध्यायमें श्रावक-धर्मका वर्णन है जिसमें पंचाणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षावत, प्रतोके अतोचार तथा ग्यारह प्रतिमामोके व्रतोका विवेचन है। तेरहवें अध्याय में व्रतो के धारण करने वालेके कोंके क्षयोपशमादि अन्तरंग कारणोका वर्णन है।।
अन्त में एक परिशिष्ट है-शेष कथन जो रह गया है उसे इसमे निबद्ध किया गया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ तेरह अध्यायोमे परिशिष्टके साथ समाप्त होता है।
ग्रन्थ के वर्णनोय विषयोका संक्षिप्त परिचय यहाँ कराया गया है, विशद वर्णन तो ग्रन्थ मे है ही, उसका विस्तार करना अनावश्यक है कुछ वर्णित विषय अधिक स्पष्टीकरण चाहते हैं। उनकी कुछ चर्चा करना यहाँ अप्रासगिक न होगा।
१ वृक्ष से तोडे गए पत्र, पुष्प, फल सचित्त है या अचित्त इस पर लेखक ने वर्तमान गलत व्याख्याओ का निराकरण अध्याय ३, श्लोक २६ से ३५ मे वनस्पतिकायिक जीवोका वर्णन करते हुए भावार्थमे किया है कि एक वृक्षमे वृक्षका जोब अलग है और उसके आधारपर उत्पन्न होने वाले पत्तो व फलोमे उसका जीव अलग रहता है " "... इस अपेक्षा वे सचित्त है । "आदि। इसपर यहां कुछ विशेष विचार किया जाता है।
आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचारमे स्पष्ट लिखा है"मूल-फल-शाक-शाखा-करोर-कन्द-प्रसून-बीजानि ।
नामानियोऽति सोऽयं सवित्तविरलोदयामूर्तिः॥" इसमे वृक्ष को जड़, उसकी शाखा, पत्र-फल-फूल-कन्द-बोज सबको पृथक-पृथक सचित्त माना है और इनको कच्चा अर्थात् बिना अग्निपक्य द्वारा अचित्त किए खाने का सचित्त त्याग प्रतिभा वालेको स्पष्ट निषेध किया है। इससे वृक्षमे ये सब स्वयं अलग-अलग जीव वनस्पतिकायिक मचित्त योनि मे हो हैं। यह आगम सिद्ध है। जिन लोगोको मान्यता इस प्रकारको बनाई गई है कि मनुष्यके अंग-प्रत्यंगोको तरह ये वृक्ष के अग-प्रत्यंग है अतः जैसे नाना अगो वाली मनुष्य देहमे मनुष्यका एक हो जीव है अंग-प्रत्यगोका अलग नहीं है। यहो नियम वृक्ष के अंग-प्रत्यगोपर लगाना चाहिये-यह कथन सर्वथा विपरीत है उसके हेतु निम्न भांति है