Book Title: Samichin Dharmshastra
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 6
________________ समर्पण त्वदीयं वस्तु भोः स्वामिन् ! तुभ्यमेव समर्पितम् । हे आराध्य गुरुदेव स्वामी समन्तभद्र ! आपका यह अनुपम धर्मशाल मुझे मेरे विद्यार्थि-जीवनमें ही, आजसे कोई ६५ वर्ष पहले, प्राप्त हो गया था और मैंने इसमें तत्कालीन बम्बई जैन परीक्षालयकी परीक्षा देकर उत्तीर्णता भी प्राप्त की थी। उस समय मात्र परीक्षा पास करनेकी दृष्टि थी और साधारण अर्थबोध ही हो पाया था; परन्तु बादको मैं इसे ज्यों ज्यों पढ़ता तथा अपने गहरे अध्ययन-मननका विषय बनाता रहा त्यों त्यों इसके पदवाक्योंकी गहराई में स्थित अर्थ ऊपर आकर मेरी प्रसन्नताको बढ़ाता रहा । मुझे धार्मिक दृष्टि प्रदान करने तथा सन्मार्ग दिखाने में यह ग्रन्थ बड़ा ही सहायक हुआ है और मैं बराबर इसके मर्मको अधिकाधिक रूपमें समझने की चेष्टा करता रहा हूँ। मैं उस मर्मको कहाँतक समझ पाया हूँ यह बात ग्रन्थके प्रस्तुत भाष्य तथा उसकी प्रस्तावना परसे जानी जासकती है और उसे पूर्ण रूपमें तो श्राप ही जान सकते हैं । मैं तो इतना ही समझता हूँ कि आपका आराधन करते हुए आपके ग्रन्थोंसे,जिनका मैं बहुत ऋणी हूँ,मुझे जो कुछ दृष्टि-शक्ति प्राप्त हुई है और उस दृष्टि-शक्तिके द्वारा मैंने जो कुछ अर्थादिका अवलोकन किया है, ये दोनों कृतियाँ उसीका प्रतिफल हैं । इनमें आपके ही विचारोंका प्रतिविम्ब एवं कीर्तन होनेसे वास्तव में यह सब आपकी ही चीज़ है और इसलिये आपको ही सादर समर्पित है । आप लोक-हितकी मृति हैं, आपके प्रसादसे इन कृतियों-द्वारा यदि कुछ भी लोक-हितका साधन हो सका तो मैं अपनेको आपके भारी ऋणसे कुछ मुक्त हुश्रा समदूंगा। विनम्र जुगलकिशोर

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