Book Title: Sambodhi 2011 Vol 34 Author(s): Jitendra B Shah Publisher: L D Indology AhmedabadPage 87
________________ जैन दार्शनिकों का अन्य दर्शनों को त्रिविध अवदान सागरमल जैन जैन दार्शनिकों ने अन्य भारतीय दर्शनों को जो अवदान दिया है वह त्रिविध है । वह त्रिविध इस दृष्टि से है कि प्रथमतः उन्होंने अन्य दर्शनों की एकान्तवादी धार्मिक एवं दार्शनिक मान्यताओं की निष्पक्ष समीक्षा की और उनके एकान्तवादिता के दोषों को स्पष्ट किया । इस क्षेत्र में जैन दार्शनिक आलोचक न होकर समालोचक या समीक्षक ही रहे। दूसरे उन्होंने परस्पर विरोधी दार्शनिक मतवादों के मध्य अपनी अनेकान्तवादी दृष्टि से समन्वय किया। तीसरे उन्होंने निष्पक्ष होकर दर्शन संग्राहक ग्रन्थों की रचना की है । (१) अन्य दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण प्रथमतया उन्होंने अन्य भारतीय दर्शनों में जो एकान्तवादिता का दोष आ गया था, उसके निराकरण का प्रयत्न किया । जैन दार्शनिकों ने अन्य दर्शनों की जिन मान्यताओं की समीक्षा की थी, वह भी उनकी एकान्तवादिता की समीक्षा थी, न कि उनके सिद्धान्त का समग्रतया निराकरण । उदाहरणार्थ जैनों ने बौद्धों के जिस क्षणिकवाद की समीक्षा की थी, वह उनके एकांत परिवर्तनशीलता के सिद्धान्त की थी, जैनदर्शन ने वस्तु या सत्ता के स्वरूप में उत्पाद और व्यय को स्वीकार करके वस्तु की परिवर्तनशीलता तो स्वयं ही स्वीकार की थी । इसीप्रकार जब वे सांख्य के कूटस्थनित्य आत्मवाद या वेदान्त के सत् की अपरिवर्तनशीलता के सिद्धान्त की समीक्षा करते हैं, तो उनका आशय सत्ता की ध्रौव्यता का पूर्ण निराकरण नहीं है, वे स्वयं भी उत्पाद - व्यय के साथ सत्ता की ध्रौव्यता को स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार जैन दार्शनिकों के द्वारा उनकी जो आलोचना प्रतीत होती है, वह आलोचना नहीं, मात्र समीक्षा है, यह जान लेना आवश्यक है। उनकी भूमिका एक आलोचक की भूमिका नहीं, एक चिकित्सक की भूमिका है। जैसे एक चिकित्सक रोगी की बीमारी का निराकरण करता है, न कि उसके अस्तित्व को नकारता है, वह तो उसे स्वस्थ बनाना चाहता है । उसी प्रकार जैन दार्शनिक अन्य दर्शनों के एकान्तवादिता के दोष का निराकरण चाहते हैं, न कि उन सिद्धान्तों का समग्रतया खण्डन करते हैं । अतः उनकी अन्य दर्शनों की समीक्षा को इसी रूप में देखा जाना चाहिये । ऐतिहासिक दृष्टि से अन्य दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा जैनदर्शन में आगमयुग से प्रारम्भ होकर सत्रहवीं शती के उपाध्याय यशोविजयजी के ग्रन्थों तक निरन्तर रूप से चलती रही, फिर भी जैन दार्शनिक अन्य दर्शनों के प्रति अपनी समालोचना में भी आक्रामक नहीं हुए । इसका सबसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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