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Vol.XXXIV, 2011 जैन दार्शनिकों का अन्य दर्शनों को त्रिविध अवदान
81 अछूते नहीं रहे। फिर भी इतना अवश्य मान लेना होगा कि जैन दार्शनिकों की भूमिका आक्रामक आलोचक की न होकर समालोचक या समीक्षक की ही रही है, क्योंकि उनके दर्शन की धुरी रूप अनेकांतवाद की यह मांग थी। (२) अनेकांत दृष्टि से विभिन्न दर्शनों के मध्य समन्वय के सूत्रों की खोज
जैन दार्शनिकों का दूसरा महत्त्वपूर्ण अवदान उनकी अनेकांत आधारित समन्वयात्मक दृष्टि है । जहाँ एक ओर जैन दार्शनिकों ने अन्य दर्शनों के एकान्तवादिता के दोष का निराकरण करना चाहा, वहीं दूसरी ओर भारतीय दर्शनों के परस्पर विरोधी सिद्धान्तों में समन्वय करना चाहा और अन्य दर्शनों में निहित सापेक्षिक सत्यता को देखकर उसे स्वीकार करने का प्रयत्न भी किया और इस प्रकार विविध दर्शनों में समन्वय के सूत्र भी प्रस्तुत किये हैं। हरिभद्र ने अन्य दर्शनों के अध्ययन के पश्चात् उनमें निहित सारतत्त्व या सत्य को समझने का जो प्रयास किया है, वह भी अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण और उनके उदारचेता व्यक्तित्व को उजागर करता है । यद्यपि हरिभद्र चार्वाक दर्शन की समीक्षा करते हुए उसके भूतस्वभाववाद का खण्डन करते हैं और उसके स्थान पर कर्मवाद की स्थापना करते हैं । किन्तु सिद्धान्त में कर्म के जो दो रूप द्रव्यकर्म और भावकर्म माने गये हैं उसमें एक ओर भावकर्म के स्थान को स्वीकार नहीं करने के कारण जहा वे चार्वाक-दर्शन की समीक्षा करते हैं वही दूसरी ओर वे द्रव्यकर्म की अवधारणा को स्वीकार करते हुए चार्वाक के भूतस्वभाववाद की सार्थकता को भी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि भौतिक तत्त्वों का प्रभाव भी चैतन्य पर पड़ता है। पं. सुखलालजी संघवी लिखते हैं कि हरिभद्र ने दोनों पक्षों अर्थात बौद्ध एवं मीमांसकों के अनुसार कर्मवाद के प्रसंग में चित्तवासना की प्रमुखता को तथा चार्वाकों के अनुसार भौतिक तत्त्व की प्रमुखता को एक-एक पक्ष के रूप में परस्पर पूरक एवं सत्य मानकर कहा कि जैन कर्मवाद में चार्वाक और मीमांसक तथा बौद्धों के मन्तव्यों का सुमेल हुआ है।
इसी प्रकार शास्त्रवार्तासमुच्चय में हरिभद्र यद्यपि न्याय-वैशेषिक दर्शनों द्वारा मान्य ईश्वरवाद एवं जगतकर्तृत्ववाद की अवधारणाओं की समीक्षा करते हैं, किन्तु जहा चार्वाकों, बौद्धों और अन्य जैन आचार्यों ने इन अवधारणाओं का खण्डन ही किया है, वहाँ हरिभद्र इनकी भी सार्थकता को स्वीकार करते हैं । हरिभद्र ने ईश्वरवाद की अवधारणा में भी कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों को देखने का प्रयास किया है। प्रथम तो यह कि मनुष्य में कष्ट के समय स्वाभाविक रूप से किसी ऐसी शक्ति के प्रति श्रद्धा और प्रपत्ति की भावना होती है, जिसके द्वारा वह अपने में आत्मविश्वास जागृत कर सके। पं. सुखालालजी संघवी लिखते हैं मानव मन की प्रवृत्ति या शरणागति की यह भावना मूल में असत्य तो नहीं कही जा सकती । उनकी इस अपेक्षा को ठेस न पहुंचे तथा तर्क व बुद्धिवाद के साथ ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वय भी हो, इसलिए उन्होंने (हरिभद्र ने) ईश्वर-कर्तृत्ववाद की अवधारणा को अपने ढंग से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। हरिभद्र कहते हैं कि जो व्यक्ति आध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपने विकास की उच्चतम भूमिका
को प्राप्त हुआ हो, वह आत्मा है और वही ईश्वर या सिद्ध पुरुष है। . उस आदर्श स्वरूप को प्राप्त करने के कारण कर्ता तथा भक्ति का विषय होने के कारण उपास्य
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