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उपयोगी तो है, पर व्यक्ति की समस्या का वास्तविक समाधान नहीं है। प्रत व्यवहारनय उपयोगी होते हुए भी गर्न शन त्याज्य है । समयसार का शिक्षण है कि अज्ञानी (व्यवहारनय पर आश्रित) मन वस्तुमो मे मासक्त होता है, इसलिए कर्मरूपी रज से मलिन किया जाता है जिम प्रकार कीचड मे पडा हुया लोहा मलिन किया जाता है। किन्तु जानी (निश्चयनय पर आश्रित) सब वस्तुप्रो मे राग (पाक्ति) का त्यागी होता है, इसलिए वह कर्मरूपीरज़ (मानमिक तनावरूपीरज) ने मलिन नही किया जाता है, जिस प्रकार कनक कोचर मे पाहमा मलिन नहीं किया जाता है (113, 112) 1 ठोक ही है, जब तक चेतना की परतन्त्रता (मानसिक तनाव) का कारण आसक्ति समाप्त न हो, तब तक चेतना की स्वतन्त्रता (तनाव-मुक्ति) कैसे घटित हो सकती है ? प्रज्ञानी मनुष्य को वशा:
स्वचेतना(आत्मा) की स्वतन्त्रता का विस्मरण ही अज्ञान है। इस विम्मरण का कारण है कि जन्म-जन्मो से आत्मा ने कर्मो के माथ एकीकरण स्थापित कर रखा है । इस एकीकरण के कारण ही प्रात्मा प्रासक्ति-जन्य प्रवृतियो में तल्लीन रहता है, जिसके कारण दुख-पूर्ण मानसिक तनावो से वह घिर जाता है और परतन्त्रता का जीवन जीता है। वह ससार मे अज्ञान के कारण विभिन्न प्रकार के चेतन-अचेतन द्रव्यों से एकीकरण स्थापित करता रहता हैं (10,11,12) । समयसार का कथन है कि पर द्रव्य को प्रात्मा में ग्रहण करता हुआ तथा प्रात्मा को भी पर द्रव्य मे रखता हुआ व्यक्ति प्राज्ञानमय (मूच्छित) होता है (46, 48)। चूंकि अज्ञानी अपनी क्रोधादि सवेगात्मक अवस्थाओं से एकीकरण कर लेता है, इसलिए उसके सभी भाव अज्ञानमय होते हैं (62, 64) । समयसार का कहना है कि जैसे कनकमय वस्तु से कुण्डल 'प्रादि वस्तुए चयनिका
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