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113 और निस्सदह अज्ञानी सब वस्तुओ मे आसक्त (होता है)।
अत कर्म के मध्य मे फंसा हुआ कर्मरूपी रज से मलिन किया जाता है, जिस प्रकार कीचड मे (पडा हुआ) लोहा (मलिन किया जाता है)।
114. नाना प्रकार की सचित्त, अचित्त और मिश्रित वस्तुप्रो को
खाते हुए भो शख की श्वेत पर्याय काली (पर्याय) कभी भी नही की जा सकती है।
115. उसी प्रकार अनेक प्रकार की सचित्त, अचित्त और मिश्रित
वस्तुओ को भोगते हुए ज्ञानी का भी ज्ञान अज्ञान मे बदलने के लिए सभव नही किया गया है।
116 जव वह ही शख श्वेत पर्याय को स्वय (ही) छोडकर कृष्ण
पर्याय को प्राप्त करता है, तब (वह) (ही) शुक्लत्व को छोड देता है।
117 निश्चय ही उसी प्रकार ज्ञानी भी जब ज्ञान-स्वभाव को
स्वय ही छोडकर अज्ञान के द्वारा परिवर्तित (होता है), तव अज्ञान भाव को प्राप्त हो जाता है।
118. सम्यग्दृष्टि जीव (अध्यात्म मे) शकारहित होते हैं, इस
लिए (वे) निर्भय (होते हैं), चूकि (सम्यग्दृष्टि जीव) सात (प्रकार के भयो से मुक्त (होते है), इसलिए निश्चय
ही (वे) (अध्यात्म मे) शका-रहित (होते हैं)। * लोक-भय, परमोक-भय, मरक्षा भय, अगुप्ति-भय (सयम हीन होने का भय), मृत्यु-भय, वेदना-भय, मौर अकस्मात-भय ।
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