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का मानने के कारण मुख-दु.सात्मक परिणामो को भोगनेवाला होता है। इस तरह से वह द्वन्द्वात्मक जीवन जीता है और मानसिक ननाव मे फॅम जाता है । अज्ञानी का कर्तृत्व परतन्त्रता का पोपक होता है। व्यवहारनय परतन्त्रता से उत्पन्न दृष्टि का सूचक है। वह परतन्त्र प्टि का द्योतक है। चूंकि परतन्त्र दृष्टि वास्तविकता का बोध करानेवाली नही हो मरती है इसलिए व्यवहारनय अवास्तविकता का ही बोध कराता है। इस कारण से वह अवाम्तविक है, अमत्य है, अशाश्वत है। जो व्यवहारनय का प्राश्रय लेता है, वह अनानी है, मिथ्यावष्टि है, मच्छित है। अज्ञानी का एक मात्र लक्षण यह है कि उसे स्वचेतना की स्वतन्त्रता का विस्मरण हो जाता है। मूस्पिी मल उस पर छा जाता है और स्वतन्त्रता अवश्य हो जाती है, ठीक उसी प्रकार जैसे मैल से वस्त्र की सफंद अवस्या अदृश्य हो जाती है (83)। परतन्त्रतारहित अवस्था ही वास्तविकता है। यही स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति हैं। निश्चयनय स्वतन्त्रता से प्राप्त दृष्टि का सूचक है। यह ही वास्तविकता का वाध कराता है। इसलिए यह वास्तविक है, सत्य है और शाश्वत है। जो वास्तविकता का प्राश्रय लेता है, वह ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है, और जागृत है (4)। ज्ञानी को, मम्यग्दष्टि को स्वचेतना की स्वतन्त्रता का स्मरण हो जाता है । स्वतन्त्रता का स्मरण ही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दृष्टि को शुद्ध आत्मा पर श्रद्धा हो जाती है, उसके स्वतन्त्र स्वभाव पर श्रद्धा हो जाती है (81)1 सम्यग्दृष्टि प्रात्मा को और उसके ज्ञायक स्वभाव को जानता है (102) । वह आत्मा और अनात्मा मे भेद करने लगता है (104)। सम्यग्दृप्टि प्रज्ञावान होता है। समयसार का कथन है कि यह प्रात्मा प्रज्ञा के द्वारा ही ग्रहण की जाती है। वह आत्मा निश्चय से 'मैं हूँ (146) । जो द्रष्टा-भाव और ज्ञाता
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