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है, क्योकि वह अनासक्ति का जीवन जीता है (100)। उमे इन्द्रिय-विपयो मे बिल्कुल ही राग नही होता (158)। स्वतन्त्रता की साधना
स्व चेतना की स्वतन्त्रता का स्मरण होने के पश्चात् सम्यग्दृष्टि के जीवन में एक ऐसे जान का उदय होता है जो उसे चारित्र की साधना करने के लिए प्रेरित करता है। चारित्र की साधना के महत्व को समझाते हुए समयमार का कथन है कि जिस व्यक्ति मे रागादि भावो (मानसिक तनाव)का अश मात्र भी विद्यमान है,वह आगम का धारक होते हए भी स्वतन्त्रता के महत्व को पूरी तरह नही समझा है (103)। जो व्यक्ति शुद्धात्मा (स्वतन्त्रता) पर निर्भर नही है, किन्तु यदि वह वाह्य तप और व्रत धारण करता है, तो भी वह अवोध तप और अवोध व्रत ही कर रहा है (78)। व्रतो और नयमो को धारण करते हए तथा शील और तप का पालन करते हुए जो व्यक्ति शुद्ध प्रात्म-तत्व से अपरिचित है वे परम शान्ति को प्राप्त नही करते है। कुछ परतन्त्रतावादी व्यक्ति ऐसे होते है कि यदि वे आगम ग्रन्थो का अध्ययन भी करते है तो बोद्धिक ज्ञान को चाहे वे प्राप्त करले, पर आत्मज्ञानरूपी फल को वे उत्पन्न नहीं कर पाते है(137)। वे परतन्त्रतावादी अपने अज्ञान-स्वभाव को नही छोडते है, जैसे सर्प गुडसहित दूध को पीते हुए भी विषरहित नही होता है (150)। अत. कर्मो (मानसिक तनावो) से छुटकारा पाने के लिए आत्मा के ज्ञायक स्वभाव का ज्ञान, प्रात्मा की स्वतन्त्रता का ज्ञान या जीव-अजीव के भेद का ज्ञान ग्रहण किया जाना चाहिए (104, 105, 102) । समयसार का शिक्षण है कि यदि व्यक्ति इसमे ही सदा सलग्न रहे, इससे सदा सतुष्ट हो, इससे ही तृप्त हो, तो उसे उत्तम सुख प्राप्त हो जायेगा (106)। ज्ञान और चारित्र के महत्व को समझाते हुए xx ]
समयसार