________________
समयसार का कहना है कि प्रज्ञा(ज्ञान+चारित्र) के द्वारा ही आत्मा (स्वतन्त्रता) का अनुभव किया जाना चाहिए (145) । प्रज्ञा के द्वारा जीव तथा कर्म-बन्वन को विभक्त करने के कारण ही वे दोनो अलग अलग हो जाते हैं (143) । इस प्रज्ञा के द्वारा जो ग्रहण किए जाने योग्य है, वह आत्मा (स्वतन्त्रता) निश्चय से 'मैं' हूँ। जो अवशिष्ट वस्तुएँ है, वे मेरे से भिन्न है (146)। ज्ञाता-द्रष्टा भाव और (वास्तविक) 'मैं' अभिन्न हैं (147, 148) । इसे प्रज्ञा (जान+चारित्र) के द्वारा ग्रहण किया जाना चाहिए (147)।
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि समयसार के अनुसार स्वतन्त्रता की साधना का अर्थ है आन्तरिक विकासोन्मुख माध्यात्मिक परिवर्तन । समयसार का यह विश्वास प्रतीत होता है कि व्यक्ति विभिन्न सामाजिक कारणो से प्रेरित होकर वाह्य साधना तो आसानी से कर लेता है, पर आन्तरिक साधना जो एक अकेली यात्रा है, व्यक्ति कठिनाई से कर पाता है। केवल बाह्य साधना से सामाजिक सतुष्टि ती होती है, पर आध्यात्मिक आन्तरिक विकास नही हो पता है। इस कारण व्यक्ति लम्बे समय तक वाह्य साधना करने के पश्चात् भी अपनी जीवन पद्धति को नही बदल पाता है। अत कहा जा सकता है कि शुद्ध आत्मा की ओर दृष्टि हुए विना नियम, व्रत आदि का पालन सामाजिक दृष्टिकोण से उपयोगी होते हुए भी व्यक्ति के लिए व्यर्थ ही सिद्ध होता है। ऐसा होने से व्यक्ति के मानसिक तनाव कम होने के स्थान पर वढ जाते है । वे योगी जो परमार्थ (आध्यात्मिक आन्तरिक परिवर्तन) का अभ्यास करते है, वे ही मानसिक तनावो का क्षय कर पाते हैं (82)। जो लोग निश्चय (आध्यात्मिक आन्तरिक परिवर्तन) को सार्थकता को छोड़ कर व्यवहार (केवल वाह्य तप आदि) मे प्रवृत्ति करते हैं, वे मानसिक तनावो को नष्ट चयनिका
[ रहा
XXI