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तन्मय होना पडेगा, ( 51 ) क्योकि कर्ता होने की यह शर्त है कि उसे उस रूप परिवर्तित होना अनिवार्य है ( 51 ) । यह स्वीकार किया गया है कि स्वभाव विरुद्ध होने के कारण ज्ञानी कर्ता पुद्गल कर्मरूप या सवेग-जनित क्रियारूप परिवर्तित नही हो सकता है, अत वह उनका कर्ता नही हो सकता है ( 51 ) । कोई भी चेतन सत्ता पुद्गल कर्मरूप या पुद्गल कर्म से उत्पन्न भावरूप परिवर्तित नही हो सकती है । समयसार का कहना है कि पर द्रव्य को आत्मा मे ग्रहण न करता हुआ तथा आत्मा को भी पर द्रव्य मे न रखता हुआ मनुष्य ज्ञानमय होता है । वह कर्मों का अकर्ता है ( 47 ) । मनुष्य अज्ञान के कारण पर द्रव्यों को आत्मा मे ग्रहण करता है और आत्मा को भी पर द्रव्य मे रखता है । वह अज्ञानी कर्ता है (46, 49 ) । ज्ञानी कर्ता सब प्रकार के अज्ञानमय कर्तृत्व को छोड़ देता है ( 49 ) ।
यहाँ यह समझना चाहिए कि जैसे अज्ञानी (परतन्त्र ) व्यक्ति सवेग-जनित पुद्गल कर्मों का तथा कर्म - जनित सवेगो का कर्ता होता है, उसी प्रकार वह इस लोक मे विविध सवेगो से प्रेरित क्रियाओ का तथा घडा, कपडा, रथ आदि का कर्ता होता है (50) । वह कर्तृत्व के अहकार से ग्रसित होता है । इम कारण उसके मानसिक तनाव उत्पन्न होता है । यदि ज्ञानी (स्वतन्त्र) व्यक्ति घडा, कपडा आदि पर द्रव्यों को बनाए तथा विविध सवेगजति क्रियायो को करे, तो उसे उन रूप परिवर्तित होना पडेगा । यह असभव है । अत वह वास्तव मे उनका कर्ता नही हो सकता है (51) 1 इस तरह यहाँ कहा जा सकता है कि व्यवहार से आत्मा उनका कर्ता है, किन्तु निश्चय से नही ( 50 ) । ज्ञानी मे कर्तृत्व का अहकार नही होता है इसलिए उसमे मानसिक तनाव पैदा नही होता है । समाज की अपेक्षा ज्ञानी और अज्ञानी दोनो ही
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