Book Title: Samayprabhrut
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 6
________________ + + + + सिरे पर शुभ भाव, त्याग, व्रत आदि को रखें और दूसरे सिरे पर अशुभ भाव, अवतादि को रखें। अपने को ज्ञान में स्थापित करें तो वह पाता है। कि मैं तो शुभ का मी जानने वाला है और अशुभ का भी जानने वाला हूँ। न शुम रूप हूँ। और न अशुभ रूप। यह दोनों तो कर्म जनित है। इस प्रकार ज्ञान में अपनापना स्थापना करें तो पर का कापना एवं अहमपना मिटें। रागादिक और शरीरादिक रूप अनुभव करने का फल अनन्त संसार और आकुलता, दुख रूप है जबकि ज्ञान रूप अनुभव करने का फल अनन्त आनन्द है, कर्म का अभाव है। दोनों चीज इसके पास है, यह आप अनुभव करने वाला है। यह इसकी स्वतन्त्रता है, चाहे अपने को ज्ञान रूप अनुभव करें, चाहे रागादिक रूप अनुभव करें। आत्मा की चर्चा करना ग्रन्थों का अध्ययन करना, चिन्तन करना यह सब विकल्प रूप है। आत्मा का अनुभव करना अलग ही कार्य है। समुद्र के किनारे बैठ कर समुद्र की चर्चा अलग बात है। और समुद्र में गोता लगाना अलग बात है। गोता लगाने का आनन्द अलग ही है। यहां समुद्र और गोता लगाने वाले दो नहा है. एक ही है। इस ग्रन्याधिराज का मूल उद्देश्य है कि द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दृष्टियों के विषयाको जानकर पर्यायाका अवलम्बन छोड़ कर द्रव्य स्वभाव के विषयभूत वस्तु का अनुभव करना। द्रव्य-दृष्टि का एकांत करेगा तो पर्याय में रागादिक होते हुए भी अपनी जिम्मेवारी नहीं समझेगा और पर्याय दृष्टि का एकांत करेगा तो अपने को रागादिक रूप ही मान लेगा, रागादिक का अभाव नहीं करेगा। दोनों ही मिथ्या है। अपने को झान-दर्शन स्वभावी जान कर रागादिक मेटने को निरन्तर अपने स्वभाव का आश्रय लेगा वह रागादिक का नाश करके परम पद को प्राप्त करेगा। इस ग्रन्थराज का प्रकाशन भाई शान्तिलाल जी ने अपने ट्रस्ट से किया है। यह ग्रन्थराव आत्मकल्याण का मार्ग बताने वाला अदितीय चक्षु है। इसकी महिमा अपार है। इसका प्रकाशन करके जिज्ञासुओं में तत्व ज्ञान का प्रचार करना अपने आप में बहुत बड़ा काम है। धन का सही उपयोग यही है। इसके लिए माई शान्तिलाल जी प्रशंसा के + म 5 5 55 55 55 55 55 5 5 乐 5 5 5 -बाबूलाल जैन 5 सन्मति विहार, . २/१०, अंसारी रोड़, नयी दिल्ली-११०००२ 5 5 5

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