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अपना घर बनाना होता है, वह अभियंता के पास जा कर उससे विचार-विमर्श करता है न? उस को पैसे देकर प्लान बनवाता है न?
परंतु पहली बात तो यह है कि 'मैं अनंत दोषों की, अनंत कर्मों की जाल में फँसा हुआ हूँ, यह विचार उसी मनुष्य को आ सकता है जो कि प्रशमभाव में स्थिर हो। उसके अंतरंग दोष-क्रोध-मान-माया-लोभ वगैरह शांत बैठे हों। इंद्रियों की विषयानुकूल दौड़धूप जरा कम हो चुकी हो! निद्रा, आलस्य, विषयभोग और अर्थहीन बातों से मन-वचन-काया के योग, अल्प समय के लिए भी सुषुप्त बन गए हों! मन प्रशम-रस में निमग्न हो, वाणी मौन हो और शरीर स्थिरता प्राप्त कर चुका हो, तब कहीं उस अदृश्य कर्मजाल की कल्पना आ सकती है।
उस जाल में जैसे स्वयं को देखना है वैसे अनंत-अनंत जीव भी देखने हैं। जाल को तहस-नहस कर, सिद्ध-बुद्ध और मुक्त बनी हुई अनंत आत्माओं की ओर भावविभोर नज़रों से देखना है।
चेतन, तब जाकर मनुष्य कर्मजाल को तोड़ने की और मुक्त बनने की योजना बनाना चालू कर देगा। योजनानुसार कार्य प्रारंभ कर देगा,
पुरुषार्थशील बन जाएगा। एक दिन सफलता उसके कदम चूमेगी!
कर्मजाल को तोड़ने के लिए मनुष्य को कैसा पुरुषार्थ करना चाहिए, यह जानने के लिए तू 'प्रशमरति' के श्लोक : ५९ से ६३ का विवेचन पढ़ना । स्वस्थ मन से पढ़ना।
चेतन, आरोग्य, आयुष्य, बल, वीर्य और सानुकूल संयोग हैं तब तक तू कर्मजाल को तोड़ने का धर्मपुरुषार्थ कर सकेगा। अब केवल अतीत की अँधियारी घटनाओं की गलियों में भटकना नहीं है, रुदन करना नहीं है और भविष्य की सुनहरी कल्पनाओं की मखमली सेज पर मात्र सोना नहीं है। सदैव जागृत रहना है। अतीत की मनोयात्रा और अनागत की आंतरयात्रा, वर्तमान की क्षणों को पुरुषार्थमय बनाने के लिए ही करनी है।
जब तक शरीर निरोगी है, पाँचों इंद्रियाँ कार्यक्षम हैं और आसपास के संयोग अनुकूल हैं, तब तक कर्मजाल को जान कर, उसको तोड़ने का पुरुषार्थ कर ले। याद रखना कि आरोग्य और आयुष्य, दोनों चंचल हैं।
तेरा आंतर उत्साह बना रहे, वीर्योल्लास बना रहे, हृदय का उल्लास बना
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