Book Title: Samadhan
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 275
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र पर प्रिय चेतन, धर्मलाभ, परमात्मा की परम कृपा से कुशलता है। तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ। विचार शुद्धि और व्यवहार शुद्धि के बिना, पाप कर्म के बँध से बचना असंभव है। पाप-विचारों से, पाप-वचनों से और पाप-प्रवृत्ति से कर्मबंध होता रहता है। आज मैं तुझे 'अंतराय-कर्म' किस-किस कारण से बँधता है, यह बताऊँगा। ___ अंतराय-कर्म के पाँच प्रकार हैं : १. दानांतराय, २. लाभांतराय, ३. भोगांतराय, ४. उपभोगांतराय, ५. वीर्यांतराय । सर्वप्रथम मैं अंतरायकर्म बंधने के सर्व-साधारण हेतु बताता हूँ, बाद में पाँचों प्रकार के अलग-अलग बंध हेतु बताऊँगा। चेतन, निम्न कारणों से अंतरायकर्म बँधता है : १. जिनपूजा में अंतराय करने से, रोक लगना से, २. जिनागमों को अमान्य करने से, निंदा करने से, ३. जिनाज्ञा से विपरीत उपदेश देने से, ४. दीन-दुःखी के प्रति कठोर, निर्दय व्यवहार करने से, ५. तपस्वी, मुनि, अणगार को नमस्कार नहीं करने से, ६. जीवहिंसा करने से, ७. दीन-दुःखी के ऊपर रोष करने से, ८. धर्ममार्ग का अपलाभ करने से, ९. पारमार्थिक कार्यों का उपहास करने से, १०. ज्ञानप्राप्ति में दूसरों को रुकावट करने से, ११. दूसरों को दान देते हुए रोकने से, २६८ For Private And Personal Use Only

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