Book Title: Samadhan
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 279
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र : प्रिय चेतन, धर्मलाभ, परमात्मा की परम कृपा से कुशलता है। जिस विषय पर यह पत्र माला लिख रहा हूँ, शायद यह पत्र अंतिम है। चेतन, इन पत्रों से तू स्पष्ट रूप से समझ गया है कि संसार में सभी जीव कर्मबद्ध हैं, कर्माधीन हैं, कर्मों से आवृत हैं। मूल रूप से आत्मा स्वतंत्र होते हुए भी अनादिकाल से कर्मबद्ध है। आत्मा अनंत ज्ञानी है, अनंतदर्शनी है, अनंत शक्ति का धारक है, वीतराग है, अनामी और अरूपी है... फिर आज वैसा नहीं है। कारण कर्म हैं! 'सभी दोष, सभी भूलें, सभी पाप, सभी दुर्गुण कर्मजन्य हैं, यह बात नहीं भूलना है। जब-जब तेरी दृष्टि में दूसरों के दोष दिखाई दें, भूलें दिखाई दें, पाप करता दिखाई दें, तब उन जीवों के प्रति नाराज नहीं होना, कुद्ध नहीं होना । उनका तिरस्कार नहीं करना। उस समय सोचना कि : ‘जीव तो निर्दोष है, निष्पाप है, सभी दोष कर्मजन्य हैं। मैं जानता हूँ कि जीवात्मा कर्म प्रेरित है। वह जो कुछ भी करता है, बोलता है और सोचता है... सब कुछ कर्म प्रेरित है। वैसे पापकर्मों के उदय को रोकना, सरल काम नहीं है। सभी जीवों के लिए संभव नहीं है।' इस प्रकार विचार करने से जीवात्माओं के प्रति रोष पैदा नहीं होगा। जीव मैत्री का भाव खंडित नहीं होगा और इस जीवन में इतनी उपलब्धि हो जायं तो बहुत है। यह ज्ञान दृष्टि है, यह तत्त्वदृष्टि है। राग-द्वेष के ऊपर विजय पाने के लिए यह ज्ञानदृष्टि चाहिए । तू तपश्चर्या करता है, करना, तू धर्म क्रियाएँ करता है, करना, तू व्रत-नियम करता है, करना।। ___ परंतु तुझे तत्त्वदृष्टि तो पाना ही होगा। बिना तत्त्व दृष्टि, कुछ भी करने से राग-द्वेष के ऊपर विजय नहीं पा सकेगा। जीवमैत्री अखंड नहीं रख पाएगा। इसलिए मैंने तुझे इस पत्र माला में 'कर्म' तत्त्व समझाने का प्रयत्न किया है। हर प्रश्न का समाधान तू कर्म-तत्त्व ज्ञान के माध्यम से कर सकेगा। परंतु इसलिए २७२ For Private And Personal Use Only

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