Book Title: Samadhan
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 281
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५. कायक्लेश (स्वेच्छापूर्वक कष्ट सहना) ६. संलीनता (शरीर को स्थिर रखना) ७. प्रायश्चित्त (अपने पापों का ज्ञानी गुरु से प्रायश्चित्त लेना) ८. विनय (पूज्यों का, वडिलों का विनय करना) ९. वैयावच्च (सेवा करना, विशेष कर ग्लान सेवा करना) १०. स्वाध्याय (ज्ञानाभ्यास करना) ११. कायोत्सर्ग (विविध प्रकार के काउसग्ग करना) १२. ध्यान (समवसरण-ध्यान वगैरह ध्यान करना) चेतन, इस बारह प्रकार की तपश्चर्या करते रहना। इससे आठों कर्मों के ऊपर कुठाराघात होता रहेगा। कर्मक्षय' होता रहेगा। प्रायश्चित्त से ध्यान तक के अभ्यंतर तप में विशेष रूप से प्रवृत्ति करना है। बाह्य तप अभ्यंतर तप में पूरक होता है, परंतु बाह्य तप करके ही संतुष्ट नहीं होना है। कर्मक्षय कर, आत्मा का विशुद्ध स्वरुप प्राप्त कर, परमानंद की अनुभूति करने समर्थ बनें, यही शुभ कामना करता हुआ, यह पत्र माला पूर्ण करता हूँ। कुशल रहें। - भद्रगुप्तसूरि २७४ For Private And Personal Use Only

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