Book Title: Samadhan
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 277
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २. किसी को भोजन में विक्षेप करने से, ३. दूसरों को, सुख के साधन प्राप्त होने में अंतराय करने से। तीसरे ‘भोगांतराय' कर्म के बंध हेतु निम्न प्रकार हैं : - दूसरों के भोगसुखों में ईर्ष्यावश, द्वेषवश अंतराय करने से यह कर्म बँधता है। भोगसुख पास में होते हुए भी मनुष्य इस कर्म के उदय से भोग नहीं सकता चौथा 'उपभोगांतराय' कर्म, उपभोग्य पदार्थों के उपभोग में दूसरे जीवों को अंतराय करने से बँधता है। किसी पति-पत्नी को आपस में लड़वाना, पति से पत्नी का विरह करवाना, भक्त से भगवान का विरह करवाना, बच्चे का माता से विरह करवाना, गुरु-शिष्य के बीच का संबंध तुड़वाना... इत्यादि कारणों से यह कर्म बँधता है। जब यह कर्म उदय में आता है तब उपभोग की सामग्री (स्त्री, अलंकार, मकान, वस्त्र आदि) होते हुए भी मनुष्य उसका उपभोग नहीं कर सकता है। पाँचवा वीर्यांतराय-कर्म है। वीर्य यानी शक्ति । मन की शक्ति और तन की शक्ति। यह कर्म दोनों शक्ति पर रोक लगा देता है। यह कर्म निम्न कारणों से बँधता है। - शक्ति होने पर भी जो परोपकार के कार्य नहीं करता है, - शक्ति होने पर भी जो धर्म क्रियाओं में प्रमाद करता है, - शक्ति होने पर भी जो साधुपुरुषों की सेवा नहीं करता है। - दूसरों के मन में अशांति-क्लेश पैदा करता है। - दूसरों की धर्मआराधना में विक्षेप करता है। - तन-मन की शक्ति का दुरुपयोग करता है। इससे वीर्यांतराय कर्म बँधता है। चेतन, शरीर की अशक्ति, मन का 'डिप्रेशन', मन में सदैव उदासी, वगैरह प्रतिभाव इस वीर्यांतराय कर्म के हैं। वैसे तो प्रारंभ में ही अंतराय-कर्म के २० बंध हेतु जो बताए हैं, उनसे बचने का प्रयत्न करना । अन्यथा, इस जीवन में जो जो अंतराय कर्म जीवन की राह में अड़चने पैदा करता है, भविष्य में - भवांतर में भी अंतराय कर्म इससे भी ज्यादा २७० For Private And Personal Use Only

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