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पत्र : 00
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प्रिय चेतन, धर्मलाभ, तेरा पत्र पाकर चित्त आनंदित हुआ।
'आयुष्य-कर्म' के माध्यम से तेरे प्रश्न का समाधान हुआ और इस कर्म के विषय में तुझे विशेष जानकारी प्राप्त हुई - इसका तूने तेरे पत्र में हर्ष व्यक्त किया, इससे मुझे प्रसन्नता हुई। चेतन, तेरा नया प्रश्न विषय के अनुरूप है
'जीवात्मा के जीवन का निर्णायक कर्म 'आयुष्य कर्म' है, यह बात समझ में आ गई, परंतु जीवात्मा को उस-उस गति में कोई कर्म ले जाता है अथवा आत्मा स्वतः जाती है?'
चेतन, जिस प्रकार गति चार है उसी प्रकार उस-उस गति में ले जानेवाले कर्म भी चार है। उन कर्मों को 'गति-नाम कर्म' कहा गया है। 'नामकर्म' का यह पहला प्रकार है।
नरकगति-नाम कर्म, तिर्यंचगति-नाम कर्म, मनुष्यगति-नाम कर्म और देवगतिनाम कर्म।
चेतन, जब तक आत्मा को अपने कर्म भुगतने के हैं, उस को चार गति में से किसी भी गति में जन्म लेना ही पड़ेगा। आत्मा को किसी भी गति में जाना ही पड़ता है। गए बिना चलता ही नहीं।
नरक गति का क्षेत्र है अधो लोक । अधो लोक में क्रमशः नीचे-नीचे सात पृथ्वी आई है। क्रमशः उसका क्षेत्र बड़ा है। सातवीं नरक सबसे बड़ी है। पीड़ा और वेदना भी क्रमशः बढ़कर के होती है। नरक में जीव का कम से कम १० हजार वर्ष का आयुष्य होता है। ज्यादा से ज्यादा ३३
सागरोपम (काल का माप है... जिस में असंख्य वर्षों का समावेश होता है) वहाँ रहना पड़ता है। वहाँ जीव का शरीर अति कुरूप होता है। आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से वहाँ सम्यक श्रद्धा तक ही जीव का विकास हो सकता है।
मिथ्यादृष्टि नारक जीव परस्पर एक-दूसरे को दुःख देते हैं। दो कुत्तों की तरह नारक जीव एक-दूसरे के साथ लड़ते रहते हैं।
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