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पत्र :
प्रिय चेतन, धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ। 'पर्याप्ति' के विषय में पढ़कर तुझे आनंद हुआ और तू उस विषय को समझ पाया, जानकर संतोष हुआ। तत्त्वज्ञान में तेरी अभिरुचि बढ़ती जा रही है, अच्छा है। एक भारतीय दर्शन में कहा गया है -
'तत्त्वज्ञानाद् मुक्तिः ।' तत्त्वज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है। तेरा मुक्ति की ओर प्रयाण तो हो ही रहा है। अच्छी बात है।
तेरा नया प्रश्न इस प्रकार है -
'जैन धर्म' में एक ऐसा नियम देखने में आता है कि कुछ वनस्पति का उपयोग किया जाता है, कुछ वनस्पति निषिद्ध है। कुछ फल, कुछ सब्जियाँ खाई जाती हैं, कुछ नहीं - इसका क्या कारण है?'
चेतन, तू यह बात तो जानता है और मानता है कि वनस्पति में जीवत्व है। कुछ वनस्पति में जीव कम होते हैं, कुछ में ज्यादा।
नाम-कर्म की एक प्रकृति है 'प्रत्येक नामकर्म।' इस नामकर्म का उदय, वनस्पति के जिस जीव को होता है, उस जीव का स्वतंत्र अपना एक शरीर होता है। एक जीव, एक शरीर! यानी एक फल में एक ही जीव होता है!
नामकर्म की दूसरी एक प्रकृति है 'साधारण-नामकर्म।' इस नामकर्म का उदय, वनस्पति के जिस जीव को होता है, वह जीव अपना स्वतंत्र शरीर नहीं बाँध सकता है। अनंत जीवों के बीच एक ही शरीर होता है। साधारण यानी दिखने में एक फल, एक कंद दिखता हो, परंतु उसमें जीव होते हैं अनंत । जैसे आलू, प्याज आदि।
चेतन, सर्वप्रथम मैं प्रत्येक-वनस्पतिकाय के विषय में कुछ बातें लिखता हूँ, बाद में साधारण वनस्पतिकाय के विषय में लिगा।
'प्रत्येक नामकर्म' के उदय से वृक्ष के मूल, कंद, स्कंध, शाखा, छाल, फूल, फल... आदि में पृथक्-पृथक् जीव होता है।
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