Book Title: Samadhan
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 269
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - जिस जीवात्मा के कषाय मंद होते हैं, - जिस को दान देने की अभिरुचि होती है, - जो क्षमाशील होता है, - जो विनम्र होता है, - जो निर्दभ होता है, सरल होता है, - जो निर्लोभी होता है। यानी कि जो मध्यम कोटि के गुणों से शोभायमान होता है, वह मनुष्यआयुष्य बाँधता है। चेतन, मनुष्य मरकर मनुष्य बन सकता है। यदि वह ऊपर बताए हुए गुणों को आत्मसात् कर लेता है तो । मृत्यु के बाद यदि पुनः मनुष्य जीवन पाना है तो गुण-वैभव प्राप्त करना होगा। श्रेष्ठ कोटि के गुण नहीं होंगे तो चलेगा, मध्यम कोटि के गुण होने ही चाहिए। ___ गुणप्राप्ति को लक्ष्य बनाना होगा। गुणरक्षा के लिए सजाग रहना होगा, और गुणवृद्धि का पुरुषार्थ करना होगा। अब ‘देवगति' का आयुष्य-कर्म कैसे बँधता है, यह जान ले : १. अविरति सम्यग्दृष्टि मनुष्य, २. देशविरति श्रावक-श्राविका, ३. सर्वविरति साधु-साध्वी, ४. तपस्वी , ५. अज्ञानी तपस्वी, ६. अकामनिर्जरा करनेवाला देवगति का आयुष्य कर्म बाँधता है। चेतन, सम्यग् दर्शन-गुण आत्मा में हो, और जीवात्मा आयुष्यकर्म बाँधेगा, तो 'देवगति' का ही बाँधेगा। 'सम्यग् दर्शन' आत्मा का एक प्रमुख गुण है। सम्यग् दर्शन के साथ संलग्न अनेक विशिष्ट गुण होते ही हैं। आगे, जो समकितदृष्टि जीव, व्रत-नियमों को धारण करते हैं, वे देश-विरति श्रावकश्राविका कहलाते हैं। व्रतपालन की अवस्था में यदि वे आयुष्यकर्म बाँधते हैं, तो देवगति का ही बाँधते हैं। व्रतपालन के अध्यवसाय पवित्र होते हैं। आध्यात्मिक विकास करते हुए जब मनुष्य साधु-साध्वी बन जाते हैं; महाव्रतों का वे पालन करते हैं। उनकी आत्मविशुद्धि ज्यादा होती है। वे देवगति का ही आयुष्य कर्म बाँधते हैं। २६२ For Private And Personal Use Only

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