Book Title: Samadhan
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 247
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - पत्र : ५५ प्रिय चेतन, धर्मलाभ, परमात्मा की परम कृपा से यहाँ कुशलता है। तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ। 'सुभग-नामकर्म' और 'दुर्भग- नामकर्म' के विषय में तुझे पर्याप्त जानकारी मिली, तुझे संतोष हुआ, जानकर खुशी हुई। तेरा नया प्रश्न 'मैंने ऐसे कुछ लोगों को देखा है, वे जो कुछ भी सच्चा झूठा कहेंगे, उनकी बात लोग मान लेते हैं । सदैव उन का वचन मान्य होता है। ऐसा क्यों ? और कुछ लोग युक्तिपुरस्सर एवं हितकारी बात कहते हैं, फिर भी लोग उनकी बात नहीं मानते ! उसको मान नहीं देते, उसका सत्कार नहीं करते। ऐसा क्यों ?' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ‘चेतन, यह मामूली प्रश्न नहीं है। दुनिया में यह प्रश्न सबको सता रहा है। 'मेरी बात दूसरों को माननी चाहिए' - यह मनः कामना किसकी नहीं होती है ? माता-पिता यह चाहते हैं कि हमारे बच्चों को हमारी बात माननी चाहिए । नहीं मानते हैं बच्चे, माता-पिता दुःखी होते हैं। - • बच्चे यह मानते हैं कि हमारी बात, हमारे माता-पिता को माननी चाहिए। नहीं मानते हैं माता-पिता, बच्चे दु:खी होते हैं । - पति चाहता है कि 'मेरी पत्नी को मेरी बात माननी चाहिए, पत्नी नहीं मानती है, पति दु:खी होता है या क्रोधित होता है। पत्नी चाहती है कि मेरी बात मेरे पति को माननी चाहिए । पति नहीं मानता है तो पत्नी रूठ जाती है, दुःखी होती है। बड़ा भाई चाहता है। कि मेरे छोटे भाइयों को मेरी बात माननी चाहिए, छोटे भाई नहीं मानते हैं, तो बड़ा भाई क्रुद्ध होता है । - गुरु चाहते हैं कि शिष्यों को मेरी बात माननी चाहिए । शिष्य नहीं मानते हैं तो गुरु निराश होते हैं, दुःखी होते हैं। २४० For Private And Personal Use Only

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