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३. पूजा-अतिशय (इन्द्र भी उन की चरण सेवा करते हैं) ४. अपायापगम - अतिशय (जहाँ-जहाँ वे जाते हैं, लोगों के रोग दूर होते हैं) - ज्ञानातिशय से तीर्थंकर, उनके पास आनेवाले जीवों की समस्याओं का
समाधान करते हैं। परलोक की भी बातें बता देते हैं। - वचनातिशय से, उनके समवसरण में जानेवाले जीव, अपनी-अपनी भाषा में
तीर्थंकर का उपदेश समझ लेते हैं। - पूजातिशय से लोग तीर्थंकर से अति प्रभावित होते हैं, - अपायापगम-अतिशय से तीर्थंकर की महिमा सर्वत्र फैलती है। सामान्य
जनता के लिए यह बहुत बड़ी बात होती है। उनके अस्तित्व मात्र से लोगों के रोग मिट जाते हैं! इस प्रकार रोग मिटानेवाले को दुनिया 'भगवान' मानती ही है। जिनके चरणों की सेवा देव-देवेन्द्र करते हैं, उनको दुनिया
देवाधिदेव मानती है।
चेतन, तीर्थंकर नामकर्म के उदय से तीर्थंकर को 'अष्ट प्रातिहार्य' की शोभा प्राप्त होती है।
तीर्थंकर धर्म का उपदेश देवकृत समवसरण में बैठ कर देते हैं। समवसरण में आठ प्रकार की शोभा होती है -
- अशोकवृक्ष की छाया, - तीन छत्र - सिंहासन
- भा-मंडल - चँवर
- देव-दुंदुभि - दिव्यध्वनि
- पुष्पवृष्टि - समवसरण की अद्भुत शोभा होती है। तीर्थंकर के प्रति आकृष्ट होकर पशु
भी समवसरण में आते हैं। तीर्थंकर का उपदेश सुनते हैं और समझते हैं। - समवसरण में जीवों का परस्पर वैरभाव नहीं रहता है। शेर के पास बकरी
बैठ सकती है। बिल्ली के पास चूहा बैठ सकता है। तीर्थंकर के सान्निध्य में सभी जीव 'अभय' महसूस करते हैं। - तीर्थंकर का तप और तेज, देवों से भी ज्यादा होता है। देवियाँ भी देवलोक
के दिव्य भोग-सुख छोड़कर, तीर्थंकर के समवसरण में आती हैं और अपलक तीर्थंकर को निहारती हैं। वासनारहित निर्मल प्रेम उनके हृदय में
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