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में विलंब होने पर भी तू स्वस्थ और शांत रह सकता है।
आप लोगों के घरों में ज्यादातर क्लेश और झगड़े खाने-पीने की बातों को लेकर ही होते हैं। इसलिए ‘भोगांतराय कर्म' का ज्ञान तुम लोगों को होना अति आवश्यक है। जो भी बंधा हुआ है 'भोगांतराय कर्म' उसको तोड़ने के उपाय करने चाहिए और इस जीवन में नया भोगांतराय कर्म' बाँधना नहीं चाहिए। - पशु हो, पक्षी हो या मनुष्य हो, जब वे खाते हों - विक्षेप नहीं करना। उनका भोजन
छीन लेना नहीं। खाते-खाते भगाना नहीं, उठाना नहीं। - कोई किसी को भोजन देता हो, रोकना नहीं। - भोजन का तिरस्कार करना नहीं। - दूसरों को प्रेम से भोजन कराना। - उत्तम-श्रेष्ठ भोजन दूसरों को कराना। - घर पर आया हआ अतिथि, बिना भोजन किए लौट न जाय, इसलिए
सावधान रहना। - अशक्त, अपंग और रोगी जीवों को भोजन देना। - दूसरों की श्रेष्ठ भोजन-सामग्री देखकर ईर्ष्या नहीं करना। - साधु-संतों को उचित और श्रेष्ठ आहार देना।
इस प्रकार करने से 'भोग-लब्धि' प्राप्त होगी। यानी भोग में किसी प्रकार का विघ्न नहीं आएगा।
लाभांतराय कर्म के क्षयोपशम से भोग्य और उपभोग्य सामग्री प्राप्त होती है और भोगांतराय कर्म के क्षयोपशम से उस सामग्री का, बिना रोक-टोक मनुष्य भोग कर सकता है। खाने-पीने में कोई अंतराय नहीं आता है। जो चाहे वह खा सकता है, भोग सकता है।
'भोगांतराय' कर्म तोड़ने के लिए एक श्रेष्ठ उपाय है परमात्मा की भावपूर्ण भक्ति! चेतन, परमात्मा की प्रतिदिन 'नैवेद्य पूजा' तुझे करनी चाहिए।
वैसे तो आत्मा की स्वाभाविक 'अनाहारी अवस्था' का चिंतन-मनन कर, भोजन की आसक्ति को ही तोड़ना है। जब तक जीव कर्मों के बंधनों में बँधा हुआ है तब तक ही खाना पड़ता है, पीना पड़ता है। सिद्ध-बुद्ध और मुक्त होने पर आत्मा अनाहारी बन जाती है।
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