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करने की शक्ति होते हुए भी लापरवाही करता है... तो वह वीर्यांतराय कर्म बाँधता है! यह कर्म उदय में आएगा तब जीव को शक्तिहीन बना देगा, निर्वीर्य बना देगा।
दानांतराय कर्म का क्षयोपशम हो, लाभांतराय कर्म का क्षयोपशम हो, भोगांतरायउपभोगांतराय कर्मों का क्षयोपशम हो... परंतु वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता है तो दान देने में, पैसे की प्राप्ति में, खाने-पीने में और वैषयिक सुखोपभोग में उत्साह नहीं रहता है। आनंद नहीं होता है। अशक्त... परवश और दीन-हीन बन कर जीवन लीला समाप्त कर देता है।
चेतन, धर्मपुरुषार्थ में और परमार्थ-परोपकार के अच्छे कार्य में प्रमाद नहीं करना। आलस्य, इस दृष्टि से जीव का कितना बड़ा शत्रु है, तू समझना। हिंसा, क्रूरता, कदर्थना... कितने बड़े पाप हैं- इस कर्मबंध की दृष्टि से सोचना, चिंतन करना । आज बस, इतना ही। स्वस्थ रहे - यही मंगल कामना,
- भद्रगुप्तसूरि
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