________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- 'एक शरीर में अनंत जीव' की स्थिति को जैन दर्शन 'निगोद' कहता है। निगोद में रहे जीवों को एक मात्र स्पर्शन-इंद्रिय होती है। जिह्वा, घ्राण, चक्षु और श्रवण, उन जीवों को नहीं होते। इसलिए वे 'एकेंद्रिय' जीव कहलाते हैं। इन जीवों को मन नहीं होता है! एक इंद्रियवालों को, दो इंद्रियवालों को, तीन इंद्रियवालों को, चार इंद्रियवालों को मन नहीं होता है। पाँच इंद्रियवाले जीवों को मन होता है। परंतु सभी पंचेंद्रिय जीवों को
नहीं होता है मन । कुछ जीवों को होता है मन, कुछ जीवों को नहीं होता। - जब तक मन नहीं होता है तब तक 'मिथ्यात्व' अव्यक्त होता है, मनवाले
जीवों का 'मिथ्यात्व' व्यक्त होता है। - यह 'व्यक्त मिथ्यात्व' ही जीव को सत्य-असत्य के विषय में भ्रमित करता है। मिथ्यात्व की वजह से जीव सत्य को असत्य मानता है, असत्य को सत्य मानता है। मिथ्यात्व का प्रभाव जीव पर ज्यादा होता है, तो वह असत्य का प्रबल आग्रही होता है। मिथ्यात्व का प्रभाव कम होता है तो असत्य का आग्रह प्रबल नहीं होता है। असत्य को सत्य मान कर और सत्य को असत्य मान कर ही ये लोग जीते
हैं।
चेतन, तेरे प्रश्न का प्रत्युत्तर मिल गया न? मिथ्यात्व के गहरे प्रभाव में रहे हुए जीवों को सत्य समझाने पर भी वे तेरे सत्य को असत्य ही मानेंगे। तेरी बात का स्वीकार नहीं करेंगे। ___ यह मिथ्यात्व, 'मोहनीय कर्म' का एक प्रकार है। इसलिए वह 'मिथ्यात्व मोहनीय' कहा जाता है। सत्य का दर्शन नहीं होने देता है यह मिथ्यात्व, इस अपेक्षा से 'दर्शनमोहनीय' कहलाता है।
- सही परमात्मतत्त्व का दर्शन नहीं होने देता है, - सही गुरु-तत्त्व का दर्शन नहीं होने देता है, - सही धर्म-तत्त्व का दर्शन नहीं होने देता है।
मोहित कर देता है जीव को यह मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म । सम्मोहित जीव वास्तविक वस्तु को, उसके सही रूप में नहीं देख पाता है। अवास्तविक रूप को देखता रहता है। जिस प्रकार तांत्रिक प्रयोग से सम्मोहित मनुष्य, पानी को दूध देखता है, दूध को पानी देखता है। स्त्री को पुरुष देखता है, पुरुष को स्त्री देखता है, वैसे मिथ्यात्व से सम्मोहित मनुष्य -
७५
For Private And Personal Use Only