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की दरार बनी रहती है। क्रोध का काम यही है जीव-जीव के बीच दरार डालना । अच्छे संबंधों के बीच दरार डालना ।
चेतन, चारों प्रकार के क्रोध को कितनी वास्तविक उपमाएँ दी हैं तीर्थंकर भगवंतों ने? हुआ न तेरे प्रश्न का समाधान ? अब चारों प्रकार के मान कषाय की उपमाएँ लिखता हूँ।
१. संज्वल मान गुलाब के पौधे की लता जैसा होता है।
गुलाब का फूल चुनना है, लता को आसानी से झुका सकते हो और फूल चुन सकते हो, वैसे साधु सरलता से अपना आग्रह छोड़ता है और विनम्र बनता है ।
२. प्रत्याख्यानावरण मान काष्ठ जैसा होता है।
जिस प्रकार लकड़ा बड़ी मुश्किल से मुड़ता है, वैसे व्रतधारी श्रावक का अभिमान बड़ी मुश्किल से दूर होता है। वह शीघ्र झुक नहीं सकता है। उनका मान कषाय लकड़े जैसा होता है ।
३. अप्रत्याख्यानावरण मान हड्डी जैसा होता है।
जिस प्रकार हड्डी शीघ्र मुड़ती नहीं है, बहुत ही ज्यादा प्रयत्न से उसको मोड़ी जा सकती है, वैसे व्रतरहित समकित दृष्टि जीव का अभिमान सरलता से दूर नहीं होता है, वह विनम्र नहीं बन पाता है । बहुत प्रयत्न से... दीर्घकाल के बाद नम्रता आती है उस में ।
४. अनन्तानुबंधी मान पाषाण स्तंभ जैसा होता है ।
क्या पाषाण स्तंभ कभी मुड़ता है? कभी झुकता है ? वैसे मिथ्यादृष्टि मनुष्य का अभिमान कभी दूर नहीं होता है। वह झुकता नहीं है... अपने दुराग्रहों को नहीं छोड़ता है।
चेतन, मान कषाय को कैसी 'समुचित' उपमाएँ दी गई हैं? सामान्य बुद्धिवाला मनुष्य भी समझ सकता है । अब चारों प्रकार की माया की उपमाएँ लिखता हूँ। १. संज्वलन माया बाँस की छड़ी जैसी होती है।
वैसे साधु
बाँस की छड़ी को मोड़ने के बाद तूर्त वह छड़ी सीधी हो जाती है, साध्वी के हृदय में माया-मोहनीय के उदय से कुटिलता वक्रता पैदा होती है, परंतु सुखपूर्वक शीघ्र ही वह दूर हो जाती है।
२. प्रत्याख्यानावरण माया गोमूत्रिका जैसी होती है।
गाय रास्ते से गुजरती है, उसकी मूत्रधारा टेढी-मेड़ी गिरती है। उस को
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