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ज्यादा समय बीत जाता है। अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ला-३) के दिन उनको भिक्षा मिलती है। वे महाज्ञानी पुरुष थे। एक वर्ष से भी ज्यादा समय तक भिक्षा नहीं देनेवाले हस्तिनापुर के लोगों के प्रति उनको द्वेष नहीं हुआ, दुर्भाव नहीं हुआ। भिक्षा के अप्राप्ति का सही कारण वे जानते थे। 'मेरे ही 'लाभांतराय कर्म' की वजह से मुझे भिक्षा नहीं मिल रही है। जब 'लाभांतराय कर्म' नष्ट होगा तब सहजता से भिक्षा मिल जाएगी।'
भगवान ऋषभदेव की आत्मा ने पूर्वजन्म में, पशुओं के भोजन में अंतराय किया था। बैल घास खाते थे, किसान को बोलकर उन पशुओं के मुँह बंद करवाए थे। इससे उन्होंने 'लाभांतराय कर्म' बाँधा था। परिणामस्वरुप ऋषभदेव के जन्म में कुछ समय भोजन मिला नहीं... भूखा रहना पड़ा | समताभाव से भूखे रहे, इसलिए वह तपश्चर्या बन गई! 'वरसीतप' कहा गया। __ चेतन, किसी भी जीव को सुख मिलता हो, सुख प्राप्ति होती हो, उस में रुकावट नहीं करना । यदि तेरे पास सुख के साधन हों तो दूसरों को देना | सुख देने से सुख की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार पृथ्वी को थोड़े धान्य-कण देने से, पृथ्वी असंख्य धान्य-कण देती है, वैसे जीव दूसरों को थोड़ा भी सुख देता है, तो उसको विपुल सुख प्राप्त होता है। ___ शालिभद्र को दिव्य सुखों का लाभ कैसे हुआ था, तू जानता है न? भगवान महावीर स्वामी के समय में राजगृही में शालिभद्र का जन्म हुआ था। श्रीमंत घर में जन्म हुआ था। उसके पिता गोभद्र श्रेष्ठि मर कर
देवलोक में देव बने थे। पुत्र स्नेह से प्रेरित हो, वे प्रतिदिन दिव्य भोजन, दिव्य वस्त्र और दिव्य अलंकारों से भरी हुई ९९ पेटियाँ पुत्र के लिए भेजा करते थे! पृथ्वी पर रहा हुआ शालिभद्र देवलोक के सुख पाता था।
चूँकि, पूर्वजन्म में उसने एक मुनिराज को भाव से भिक्षा दी थी! पूर्व जन्म में शालिभद्र का जीव एक ग्वाले का छोटा लड़का था। ग़रीब था। पिता की मृत्यु हो गई थी। माँ और बेटा, दो ही थे। एक दिन लड़के ने रो-रो कर खीर का भोजन पाया था। परंतु उसने खीर खाई नहीं थी... मुनिराज को दे दी थी! उल्लसित भाव से दी थी। उसने इस दानधर्म से अपनी आत्मा में 'लाभ' के बीज बो दिए थे। अल्प समय में ही वे सुखलाभ के बीज अंकुरित बने थे, वृक्ष में परिणत बने थे और दिव्य सुख के फल देने लगे थे। चूंकि जिस दिन उसने मुनिराज को
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